सुप्रीम कोर्ट ने राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरणों की प्रभावशीलता पर उठाए सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को देशभर में राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरणों (SATs) की कार्यक्षमता और प्रभावशीलता को लेकर चिंता जताई। न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कर्नाटक राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण में रिक्तियों को भरने से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई के दौरान इन संस्थानों को बनाए रखने की व्यावहारिकता पर सवाल उठाए। अदालत ने प्रशासनिक न्यायाधिकरणों में लगातार रिक्तियां रहने और बढ़ती मुकदमेबाजी लागत पर असंतोष व्यक्त किया।

पीठ ने केंद्र सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी से कहा कि न्यायाधिकरणों में व्याप्त प्रशासनिक अव्यवस्थाओं और नौकरशाही बाधाओं के चलते इन संस्थानों का संचालन प्रभावित हो रहा है। पीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा, “जब हमारे पास इन न्यायाधिकरणों को संचालित करने के लिए पर्याप्त मानव संसाधन ही नहीं हैं, तो इन्हें बनाए रखने का क्या औचित्य है?” अदालत ने यह भी कहा कि ये न्यायाधिकरण न्यायिक प्रक्रियाओं में विलंब को बढ़ावा देने और जनता पर अतिरिक्त मुकदमेबाजी लागत का बोझ डालने का कारण बन रहे हैं।

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सुनवाई के दौरान, न्यायाधीशों ने इस प्रवृत्ति पर चिंता जताई कि न्यायाधिकरणों द्वारा पारित आदेशों को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जाती है और फिर उन्हें दोबारा न्यायाधिकरणों के पास भेज दिया जाता है। इससे मुकदमों के निपटारे में और अधिक देरी होती है और पक्षकारों पर अनावश्यक वित्तीय बोझ पड़ता है।

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न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने सुझाव दिया कि राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरणों को समाप्त कर दिया जाए और इसके बजाय उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जाए, ताकि वे उन मामलों की सुनवाई कर सकें, जो पहले न्यायाधिकरणों को सौंपे जाते थे। उन्होंने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में अपने कार्यकाल का हवाला देते हुए बताया कि उन्होंने न्यायाधिकरणों में रिक्तियों को भरने के बजाय उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या बढ़ाने का प्रस्ताव दिया था, जिसे अंततः स्वीकार कर लिया गया।

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अदालत ने अंत में याचिका का निपटारा करते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को निर्देश दिया कि न्यायाधिकरणों में रिक्तियों को भरने की प्रक्रिया को तेजी से पूरा किया जाए और भविष्य में किसी भी संभावित रिक्ति से कम से कम छह महीने पहले यह प्रक्रिया पूरी कर ली जाए, ताकि न्यायाधिकरणों के कामकाज में कोई व्यवधान न आए।

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