भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि बेदखली कार्यवाही में जारी किए गए सहमति आदेश के माध्यम से किसी किराएदार को स्वामित्व अधिकार प्रदान नहीं किए जा सकते जब तक कि कोई उचित विधिक साधन न हो। यह फैसला बीना और अन्य बनाम चरण दास (मृतक) उनके कानूनी प्रतिनिधियों के माध्यम से और अन्य [सिविल अपील संख्या 3190/2014] के मामले में आया, जिसमें कोर्ट ने एक हाईकोर्ट के निर्णय को खारिज कर दिया जिसने एक दशक पुराने सहमति आदेश की गलत व्याख्या कर विवादित संपत्ति पर किराएदार को स्वामित्व प्रदान कर दिया था। इस फैसले ने संपत्ति कानून के सिद्धांतों का पालन करने और स्वामित्व अधिकारों के हस्तांतरण के लिए औपचारिक दस्तावेज़ीकरण की आवश्यकता को रेखांकित किया है।
न्यायमूर्ति पंकज मित्थल और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ द्वारा दिए गए इस निर्णय ने कई दशकों से चले आ रहे कानूनी विवाद का निपटारा किया है, जिसमें हिमाचल प्रदेश शहरी किरायेदारी नियंत्रण अधिनियम, 1971 के तहत सहमति आदेश की व्याख्या के संबंध में जटिल विधिक प्रश्न शामिल थे।
मामले की पृष्ठभूमि:
सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला हिमाचल प्रदेश के चंबा शहर में स्थित दो कमरे वाले मकान/गोदाम के किराएदार स्वर्गीय भंवानी प्रसाद उर्फ भगती प्रसाद (अब उनके कानूनी प्रतिनिधियों द्वारा प्रतिनिधित्व) और किराएदार स्वर्गीय चरण दास (उनके कानूनी प्रतिनिधियों द्वारा प्रतिनिधित्व) के बीच लंबे समय से चले आ रहे विवाद को संबोधित करता है। यह विवाद 1977 में शुरू हुआ जब मकान मालिक ने हिमाचल प्रदेश शहरी किरायेदारी नियंत्रण अधिनियम, 1971 की धारा 14 के तहत भवन की जर्जर स्थिति और पुनर्निर्माण की आवश्यकता का हवाला देते हुए किराएदार की बेदखली की मांग की।
प्रारंभिक कार्यवाही के दौरान, 5 सितंबर, 1979 को एक समझौता हुआ, जिसमें किराएदार चरण दास ने विवादित संपत्ति के “मूल्य” के रूप में 12,500 रुपये जमा करने पर सहमति व्यक्त की। यह सहमति बनी कि यदि किराएदार यह राशि जमा करने में विफल रहता है, तो मकान मालिक का बेदखली आवेदन स्वीकार कर लिया जाएगा, और किराएदार को संपत्ति खाली करनी होगी। दूसरी ओर, यदि राशि जमा की जाती है, तो मकान मालिक का आवेदन खारिज माना जाएगा।
किराएदार ने उक्त राशि निर्धारित समयसीमा में जमा कर दी, जिससे मकान मालिक का बेदखली आवेदन खारिज हो गया। हालांकि, मकान मालिक ने इस परिणाम को चुनौती दी, और निचली अदालतों और हाईकोर्ट में कई दौर की मुकदमेबाजी के बाद, मामला अंततः सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा।
मामले में कानूनी मुद्दे:
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि क्या 5 सितंबर, 1979 के सहमति आदेश को केवल 12,500 रुपये की राशि जमा करने के आधार पर किराएदार को स्वामित्व अधिकार प्रदान करने के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय को यह विचार करना था कि क्या किराया नियंत्रक के समक्ष दिए गए मात्र एक बयान, बिना किसी औपचारिक बिक्री विलेख या हस्तांतरण दस्तावेज़ के, कानूनी रूप से संपत्ति के स्वामित्व का हस्तांतरण स्थापित कर सकता है।
कोर्ट को हाईकोर्ट की सहमति आदेश की व्याख्या की भी जांच करनी थी, जिसने निष्कर्ष निकाला था कि निर्धारित राशि जमा करके किराएदार संपत्ति का मालिक बन गया था।
पक्षकारों के तर्क:
अपीलकर्ता (मकान मालिक) की ओर से वकील श्री राजेश गुप्ता ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने सहमति आदेश की गलत व्याख्या की है, जो केवल बेदखली आवेदन को खारिज या स्वीकार करने की शर्तों से संबंधित था। उन्होंने कहा कि सहमति आदेश बिक्री या स्वामित्व के हस्तांतरण के समान नहीं है और ऐसी व्याख्या कानूनी रूप से अस्थिर है।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों (किराएदार) की ओर से वकील श्री राजेश श्रीवास्तव ने हाईकोर्ट के फैसले का बचाव करते हुए तर्क दिया कि 12,500 रुपये का भुगतान वास्तव में संपत्ति की बिक्री मूल्य के रूप में था और इस प्रकार किराएदार ने स्वामित्व अधिकार प्राप्त कर लिया था।
सर्वोच्च न्यायालय के अवलोकन और निर्णय:
सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए यह देखा कि “सहमति आदेश किसी भी प्रकार से किराएदार को स्वामित्व अधिकार प्रदान नहीं करता है।” अदालत ने यह स्पष्ट किया कि सहमति आदेश केवल बेदखली कार्यवाही के संबंध में एक समझौता रिकॉर्ड करता है और इसे संपत्ति हस्तांतरण का साधन नहीं माना जा सकता।
न्यायमूर्ति पंकज मित्थल ने पीठ की ओर से लिखते हुए कहा:
“सहमति आदेश में दर्ज बयानों की स्पष्ट रूप से पढ़ाई से यह पता चलता है कि संपत्ति के स्वामित्व के हस्तांतरण के लिए कोई समझौता या समझौता नहीं हुआ था। बयान केवल मकान मालिक के बेदखली आवेदन के खारिज या स्वीकार किए जाने से संबंधित थे। बिना किसी उचित कानूनी दस्तावेज़, जैसे पंजीकृत बिक्री विलेख के, शीर्षक का कोई हस्तांतरण नहीं हो सकता।”
कोर्ट ने आगे यह नोट किया कि किराया नियंत्रक का आदेश, जिसमें कहा गया था कि राशि जमा करने पर किराएदार मालिक बन जाएगा, “रिकॉर्ड के विरुद्ध” था और कोई दस्तावेज़ स्वामित्व हस्तांतरण के किसी भी दावे की पुष्टि के लिए मौजूद नहीं था। यह निर्णय रेखांकित करता है कि संपत्ति स्वामित्व का हस्तांतरण के लिए उचित कानूनी प्रक्रिया और दस्तावेज़ की आवश्यकता होती है, जो इस मामले में अनुपस्थित था।
सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट ने सहमति आदेश को स्वामित्व अधिकारों के हस्तांतरण के रूप में व्याख्यायित करने में “स्पष्ट रूप से त्रुटि” की है, और बिना उचित कानूनी साधन के ऐसा हस्तांतरण कानूनी रूप से मान्य नहीं हो सकता। अदालत ने 20 अप्रैल, 2011 के हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और निचली अदालतों के फैसलों को बहाल कर दिया, जिन्होंने किराएदार के स्वामित्व के दावे को खारिज कर दिया था।
मकान मालिकों द्वारा की गई अपील को मंजूर कर लिया गया, और सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि संपत्ति का स्वामित्व बिना औपचारिक कानूनी प्रक्रिया और दस्तावेज़ीकरण के हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। अदालत ने प्रतिवादियों (किराएदारों) के खिलाफ लागत भी लगाई, जिससे दशकों से चले आ रहे इस कानूनी संघर्ष का अंत हो गया।