राष्ट्रपति मुर्मू ने विधेयकों को स्वीकृति देने की न्यायिक समय-सीमाओं पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी; राष्ट्रपति और राज्यपालों के विवेकाधिकार की न्यायिक समीक्षा पर उठाए महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न

एक दुर्लभ और महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय से यह राय मांगी है कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को स्वीकृति देने या अस्वीकृत करने के संबंध में राष्ट्रपति एवं राज्यपालों पर न्यायिक आदेशों द्वारा समय-सीमाएं थोपी जा सकती हैं, जबकि संविधान में ऐसी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है।

यह विकास अप्रैल 2024 में उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय के बाद हुआ है जिसमें पहली बार न्यायालय ने यह निर्देश दिया था कि राज्यपाल द्वारा सुरक्षित किए गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन माह की अवधि के भीतर निर्णय लेना होगा। इसके अतिरिक्त, देरी होने की स्थिति में इसके कारणों को रिकॉर्ड कर संबंधित राज्य को सूचित करना आवश्यक होगा। न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों को पुनर्विचार के बाद राष्ट्रपति के पास सुरक्षित रखने की कार्रवाई को “अवैध” और “त्रुटिपूर्ण” बताया था।

राष्ट्रपति का उच्चतम न्यायालय को संदर्भ

अपने संदर्भ में राष्ट्रपति मुर्मू ने यह पूछा है कि अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति और अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा किए गए संवैधानिक विवेक के प्रयोग की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है या नहीं, और क्या न्यायालय द्वारा इन संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग की प्रक्रिया या समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है।

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उन्होंने यह भी प्रश्न उठाया है कि क्या अनुच्छेद 361, जो राष्ट्रपति और राज्यपाल को न्यायिक प्रक्रिया से प्रतिरक्षा प्रदान करता है, अनुच्छेद 200 और 201 के तहत विवेकाधीन शक्तियों के मामलों में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध है।

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इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति ने यह भी एक महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक प्रश्न उठाया है कि क्या किसी राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को उनके विचारार्थ सुरक्षित किए जाने पर राष्ट्रपति को अनिवार्य रूप से अनुच्छेद 143 के तहत उच्चतम न्यायालय से राय लेनी होती है।

इसके साथ ही, यह संदर्भ अनुच्छेद 142 के तहत न्यायिक अधिकारों और उन कार्यपालक कार्यवाहियों की न्यायिक समीक्षा से संबंधित व्यापक प्रश्नों को भी उठाता है जो अभी विधि नहीं बने हैं।

राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए प्रश्न:

  1. जब किसी विधेयक को अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तब उनके पास क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं?
  2. क्या अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को विधेयक प्रस्तुत होने पर मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह का पालन करना बाध्यकारी है?
  3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा किए गए विवेकाधीन निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है?
  4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के अंतर्गत की गई कार्रवाइयों की न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है?
  5. क्या जब संविधान में न तो समय-सीमा निर्धारित है और न ही शक्तियों के प्रयोग की विधि, तब न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के सभी विकल्पों पर समय-सीमा और प्रक्रिया निर्धारित की जा सकती है?
  6. क्या अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायिक समीक्षा के अधीन है?
  7. क्या अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति के विवेक के प्रयोग हेतु न्यायालय समय-सीमा और प्रक्रिया निर्धारित कर सकता है, जबकि संविधान में इसकी व्यवस्था नहीं है?
  8. क्या संवैधानिक योजना के अंतर्गत यह आवश्यक है कि जब राज्यपाल कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित करते हैं, तब राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राय लें?
  9. क्या अनुच्छेद 200 और 201 के अंतर्गत राज्यपाल एवं राष्ट्रपति के निर्णय, विधेयक कानून बनने से पहले की स्थिति में, न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं? क्या न्यायालय विधेयक की सामग्री पर विचार कर सकता है जबकि वह अभी कानून नहीं बना है?
  10. क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा पारित संवैधानिक आदेशों को अनुच्छेद 142 के अंतर्गत किसी अन्य तरीके से प्रतिस्थापित किया जा सकता है?
  11. क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक, राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत स्वीकृति दिए बिना कानून माना जा सकता है?
  12. अनुच्छेद 145(3) के प्रावधान के अनुसार, क्या यह आवश्यक नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय की कोई भी पीठ पहले यह तय करे कि क्या उसके समक्ष विचाराधीन मामला संविधान की व्याख्या से संबंधित महत्वपूर्ण विधिक प्रश्नों से संबंधित है, और उसे कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित करे?
  13. क्या अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां केवल प्रक्रियात्मक कानून तक सीमित हैं, या यह शक्तियां उन मामलों में भी आदेश देने की अनुमति देती हैं जो मौजूदा विधियों या संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत हैं?
  14. क्या संविधान, संघ और राज्यों के बीच विवादों को सुलझाने हेतु अनुच्छेद 131 के तहत दायर वाद के अतिरिक्त किसी अन्य अधिकार क्षेत्र का उच्चतम न्यायालय को प्रयोग करने से रोकता है?
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संवैधानिक महत्व

राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143(1) के अंतर्गत यह संदर्भ — जो राष्ट्रपति को “किसी भी विधिक या तथ्यात्मक प्रश्न” पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने की अनुमति देता है — अब राष्ट्रपति और राज्यपालों के विवेकाधिकार की सीमाओं पर न्यायिक स्पष्टीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है।

ध्यान देने योग्य है कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर कार्रवाई हेतु कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई है। राष्ट्रपति ने इस संदर्भ में यह उल्लेख किया है कि “अनुच्छेद 200 राज्यपाल द्वारा संवैधानिक विकल्पों के प्रयोग के लिए कोई समय-सीमा नहीं निर्धारित करता,” और इसी प्रकार, अनुच्छेद 201 में भी “राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विकल्पों के प्रयोग की कोई समय-सीमा या प्रक्रिया नहीं दी गई है।”

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इस संदर्भ के साथ, अब सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह अवसर आया है कि वह भारत के संघीय ढांचे, शक्तियों के पृथक्करण और राज्य विधायी प्रक्रिया में संतुलन और नियंत्रण की भूमिका के संदर्भ में व्यापक संवैधानिक योजना की व्याख्या करे।

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