संविधान होने और संवैधानिकता का पालन करने में अंतर समझना जरूरी: दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने बताया अंतर

दिल्ली हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी. के. उपाध्याय ने शुक्रवार को इस महत्वपूर्ण अंतर को रेखांकित किया कि केवल संविधान होना और वास्तविक रूप से संवैधानिकता का पालन करना दो अलग-अलग बातें हैं। उन्होंने दिल्ली में आयोजित 29वें जस्टिस सुनंदा भंडारे मेमोरियल लेक्चर के दौरान कहा कि संवैधानिकता का आधार “कानून का शासन” है, जिसे कई सत्तावादी शासन नजरअंदाज कर देते हैं, भले ही उनके पास औपचारिक रूप से संविधान मौजूद हो।

मुख्य न्यायाधीश उपाध्याय ने कहा, “हमें संविधान होने और संवैधानिकता का पालन करने में फर्क समझना चाहिए। इन दोनों के बीच सबसे बड़ा अंतर ‘कानून का शासन’ है। कई तानाशाही व्यवस्थाओं में संविधान तो होता है, लेकिन संवैधानिकता नहीं होती।” उन्होंने जर्मनी में एडॉल्फ हिटलर के उदय का उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे एक निर्वाचित चांसलर ने संवैधानिक प्रक्रियाओं में बदलाव कर लोकतंत्र को समाप्त कर तानाशाही स्थापित कर दी।

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उन्होंने यह भी कहा कि भारत की संवैधानिकता आधुनिक है, क्योंकि यहां संविधान को व्यापक दृष्टिकोण से अपनाया और व्याख्यायित किया जाता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि आधुनिकता का मतलब यह नहीं है कि पुरानी सभी चीजें गलत हैं। “हमें यह स्वीकार करना होगा कि संवैधानिकता के कुछ बुनियादी सिद्धांत, जैसे शक्तियों का पृथक्करण, कानून का शासन, संस्थानों की जवाबदेही और नागरिक अधिकारों का संरक्षण, समय के साथ विकसित होते रहते हैं,” उन्होंने कहा।

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मुख्य न्यायाधीश उपाध्याय ने हाल के दशकों में अदालतों द्वारा दिए गए ऐतिहासिक फैसलों का भी उल्लेख किया, जिन्होंने संवैधानिक सिद्धांतों को और मजबूत किया है, विशेष रूप से समानता के अधिकार के क्षेत्र में। उन्होंने यह भी कहा कि संवैधानिक मामलों पर निर्णय लेते समय न्यायालय अक्सर अकादमिक शोध और विद्वानों की लेखनी का संदर्भ लेते हैं, जिससे संविधान की आधुनिक व्याख्या को बल मिलता है।

इस कार्यक्रम में सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर और वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह भी शामिल थीं। जयसिंह ने भारत के आधुनिक संविधान पर बढ़ते खतरों को लेकर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि संविधान को कमजोर करने की प्रक्रिया औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरीकों से की जा रही है। औपचारिक रूप से नागरिकता कानून संशोधन और धर्मांतरण कानूनों के माध्यम से संविधान को चुनौती दी जा रही है, जबकि अनौपचारिक रूप से इन कानूनों के औचित्य को लेकर गलत नैरेटिव गढ़े जा रहे हैं।

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जयसिंह ने न्यायमूर्ति शेखर यादव की कुछ टिप्पणियों को ‘हेट स्पीच’ करार दिया और कहा कि इस तरह के बयान देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बन सकते हैं। उन्होंने कहा, “मैं देख रही हूं कि जो लोग संविधान की रक्षा करने की जिम्मेदारी रखते हैं, वही कई तरीकों से इसे कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं।”

यह व्याख्यान, जिसे जस्टिस सुनंदा भंडारे फाउंडेशन द्वारा प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है, संवैधानिक और कानूनी मुद्दों पर महत्वपूर्ण चर्चा का मंच प्रदान करता है। इस कार्यक्रम ने एक बार फिर यह रेखांकित किया कि लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में न्यायपालिका की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है।

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