छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में, अपने ही पिता और दादी की हत्या करने वाले शख्स को इस आधार पर बरी कर दिया है कि अपराध के समय वह मानसिक रूप से विक्षिप्त था। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 22 के तहत पागलपन की दलील का फैसला करने के लिए अपराध से पहले, घटना के दौरान और उसके बाद का आरोपी का आचरण सबसे महत्वपूर्ण होता है।
मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायाधीश बिभु दत्ता गुरु की खंडपीठ ने निचली अदालत के आजीवन कारावास के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में नाकाम रहा कि आरोपी अपराध के परिणामों को समझने की मानसिक स्थिति में था।
क्या था पूरा मामला?
यह दिल दहला देने वाली घटना 13 अप्रैल, 2021 की है। अभियोजन पक्ष के अनुसार, महेश कुमार वर्मा, जो मानसिक रूप से अस्थिर था, को उसके परिवार ने सुरक्षा के लिहाज से कमरे में बाहर से बंद कर दिया था। रात करीब 11 बजे, जब उसके पिता पन्नालाल वर्मा ने पानी देने के लिए दरवाजा खोला, तो महेश आक्रामक हो गया। उसने खुद को “मैं हनुमान जी, बजरंग बली, दुर्गा हूं” बताते हुए अपने पिता और दादी (त्रिवेणी वर्मा) पर हमला कर दिया, जिससे दोनों की मौके पर ही मौत हो गई। इस मामले में धमतरी की सत्र अदालत ने महेश को हत्या का दोषी मानते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, जिसके खिलाफ उसने हाईकोर्ट में अपील की थी।

हाईकोर्ट में दी गईं दलीलें
हाईकोर्ट में, अपीलकर्ता के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अभिषेक सिन्हा ने दलील दी कि ट्रायल कोर्ट ने इस तथ्य को नजरअंदाज किया कि महेश घटना के समय गंभीर मानसिक बीमारी से पीड़ित था। उन्होंने बताया कि महेश का पिछले 12 सालों से मनोरोग का इलाज चल रहा था और जांच एजेंसी ने उसकी मानसिक स्थिति की जांच करने की कोई कोशिश नहीं की, जो अभियोजन पक्ष के मामले में एक गंभीर खामी है। वहीं, राज्य सरकार के वकील ने ट्रायल कोर्ट के फैसले का बचाव करते हुए कहा कि मामला कानूनी पागलपन के दायरे में नहीं आता।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और फैसला
हाईकोर्ट की खंडपीठ ने मामले के तथ्यों का विश्लेषण करते हुए पाया कि अभियोजन पक्ष खुद ही आरोपी के पागलपन की दलील को खारिज करने में नाकाम रहा। कोर्ट ने इस बात पर गौर किया कि परिवार के सदस्यों, विशेषकर आरोपी की मां (जो मामले में शिकायतकर्ता भी हैं) ने शुरू से ही बताया था कि महेश मानसिक रोगी है। इसके बावजूद, जांच अधिकारी ने न तो इलाज के कोई कागजात जब्त किए और न ही डॉक्टर से संपर्क कर उसकी मानसिक हालत का पता लगाया।
कोर्ट ने आरोपी के अजीब व्यवहार, जैसे खुद को “हनुमानजी, बजरंग बली, दुर्गा” कहना और बिना किसी मकसद के अपने ही परिवार के सदस्यों की क्रूरतापूर्वक हत्या करना, को उसकी विकृत मानसिक स्थिति का एक मजबूत संकेतक माना।
कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के ‘बापू @ गजराज सिंह बनाम राजस्थान राज्य’ मामले का हवाला देते हुए कहा:
“जहां जांच के दौरान पागलपन का पिछला इतिहास सामने आता है, तो यह एक ईमानदार जांचकर्ता का कर्तव्य है कि वह अभियुक्त की चिकित्सा जांच कराए और उस सबूत को अदालत के सामने रखे और यदि ऐसा नहीं किया जाता है, तो यह अभियोजन पक्ष के मामले में एक गंभीर कमजोरी पैदा करता है और संदेह का लाभ अभियुक्त को दिया जाना चाहिए।”
पीठ ने आगे कहा कि कानूनी पागलपन (Legal Insanity) और चिकित्सीय पागलपन (Medical Insanity) में अंतर है और अदालत कानूनी पागलपन से संबंधित है।
इन सभी तथ्यों और कानूनी सिद्धांतों के आधार पर, हाईकोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा कि आरोपी की मानसिक स्थिति को लेकर एक ‘उचित संदेह’ पैदा होता है, जिसका लाभ उसे मिलना चाहिए। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा:
“हमारा विचार है कि यह अभियुक्त के पागलपन या विकृतचित्तता के बारे में एक उचित संदेह से कहीं अधिक का मामला है और इस तरह संदेह का लाभ अभियुक्त को मिलना चाहिए।”
इसी के साथ कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए महेश कुमार वर्मा को सभी आरोपों से बरी कर दिया और उसकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया।