दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को उस अधिसूचना पर गंभीर चिंता व्यक्त की जिसमें उपराज्यपाल (एलजी) ने पुलिस अधिकारियों को थानों से ही आभासी माध्यम से सबूत प्रस्तुत करने की अनुमति दी है। अदालत ने कहा कि यह कदम “प्रथम दृष्टया निष्पक्ष सुनवाई की अवधारणा से समझौता करता है।”
मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि यद्यपि एलजी को गवाही दर्ज करने के लिए स्थान तय करने का अधिकार है, लेकिन पुलिस थानों को स्थल के रूप में चुनना प्रश्नों के घेरे में है।
पीठ ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल चेतन शर्मा से पूछा कि आखिर पुलिस थानों को ही क्यों चुना गया, जबकि आपराधिक कार्यवाही में निष्पक्षता का सिद्धांत सर्वोपरि है।
अदालत ने कहा—
“निष्पक्ष सुनवाई क्या है? क्या अभियुक्त के इस अधिकार का उल्लंघन नहीं हो रहा जब अभियोजन पक्ष के गवाह अपने ही स्थान से बयान दे रहे हैं? आपको स्थान तय करने का अधिकार है, पर क्यों पुलिस थाने? यही प्रश्न है।”

न्यायाधीशों ने दोहराया कि गवाहियों का अभियुक्त की उपस्थिति में दर्ज होना आवश्यक है ताकि सुनवाई निष्पक्ष बनी रहे।
यह याचिका अधिवक्ता राज गौरव द्वारा दायर की गई थी, जिन्होंने 13 अगस्त की अधिसूचना को चुनौती दी है। अधिसूचना के तहत राजधानी के सभी पुलिस थानों को पुलिस अधिकारियों व कर्मियों के लिए वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से गवाही देने का स्वीकृत स्थल घोषित किया गया है।
याचिकाकर्ता का तर्क है कि पुलिसकर्मियों को थानों से गवाही देने की अनुमति देना उन्हें अन्य गवाहों पर अनुचित बढ़त देता है, जिनकी गवाही अब भी अदालत में ही दर्ज होती है।
उन्होंने कहा—
“पुलिसकर्मियों से उनके ही परिसर में जिरह करना पारदर्शिता को प्रभावित करता है। कोई पुलिसकर्मी मोबाइल फोन से गवाही दे सकता है और यदि कोई कठिन सवाल पूछा जाए तो वह वीडियो कॉन्फ्रेंस बंद कर सकता है।”
एएसजी चेतन शर्मा ने मामले पर निर्देश लेने के लिए समय मांगा, जिसके बाद अदालत ने सुनवाई 10 दिसंबर तक के लिए स्थगित कर दी और इसे एक अन्य समान याचिका के साथ जोड़ दिया।
याचिकाकर्ता ने आग्रह किया कि तब तक अधिसूचना को लागू न किया जाए, लेकिन अदालत ने कहा कि अधिसूचना की वैधता केवल विधायी आधार पर ही परखी जा सकती है।