भारत में तलाक के वैधानिक आधार: दोषपूर्ण व्यवहार से लेकर ‘असुधार्य रूप से टूटे विवाह’ तक का सफर

भारत में विवाह और तलाक से जुड़े कानून व्यक्तिगत धर्मों और समुदायों के आधार पर अलग-अलग संहिताओं द्वारा संचालित होते हैं। जहाँ हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (SMA) अधिकांश वैवाहिक मामलों के लिए मुख्य ढांचा प्रदान करते हैं, वहीं समय के साथ विधायी संशोधनों और न्यायिक व्याख्याओं ने तलाक के आधारों को और अधिक स्पष्ट और विस्तृत किया है। कानून के अनुसार तलाक को मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है: दोष-आधारित (Fault-based), वस्तुनिष्ठ आधार (Breakdown), और आपसी सहमति।

वैधानिक संरचना

भारत में वैवाहिक राहत मुख्य रूप से हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के लिए) और विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (नागरिक विवाह के लिए एक धर्मनिरपेक्ष कानून) के तहत मांगी जाती है। इसके अलावा, ईसाई समुदाय के लिए भारतीय तलाक अधिनियम, 1869, पारसियों के लिए पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 और मुस्लिम महिलाओं के लिए मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 अस्तित्व में हैं।

I. दोष-आधारित आधार: धारा 13(1)

विवाह के “दोष सिद्धांत” के तहत, एक पक्ष को दूसरे पक्ष द्वारा किए गए किसी विशिष्ट वैवाहिक अपराध को साबित करना होता है। धारा 13(1) के तहत प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं:

  1. व्यभिचार (Adultery): विवाह के बाद पति या पत्नी का अपने साथी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक यौन संबंध बनाना।
  2. क्रूरता (Cruelty): याचिकाकर्ता के साथ शारीरिक या मानसिक क्रूरता करना। सुप्रीम कोर्ट ने मानसिक क्रूरता को व्यापक रूप से परिभाषित करते हुए इसमें ऐसे आचरण को शामिल किया है जिससे याचिकाकर्ता के मन में यह उचित आशंका पैदा हो कि दूसरे के साथ रहना हानिकारक हो सकता है।
  3. परित्याग (Desertion): बिना किसी उचित कारण और सहमति के कम से कम दो साल की निरंतर अवधि के लिए याचिकाकर्ता को छोड़ देना।
  4. धर्म परिवर्तन (Conversion): किसी अन्य धर्म को अपनाकर हिंदू न रह जाना।
  5. मानसिक विकार (Mental Disorder): लाइलाज मानसिक अस्वस्थता या इस प्रकार का मानसिक विकार जिससे याचिकाकर्ता से साथ रहने की उम्मीद न की जा सके।
  6. यौन रोग (Venereal Disease): किसी गंभीर और लाइलाज यौन रोग से पीड़ित होना।
  7. सन्यास (Renunciation of the World): किसी धार्मिक आदेश में प्रवेश कर दुनिया का त्याग कर देना।
  8. मृत्यु की धारणा (Presumption of Death): सात साल या उससे अधिक समय तक जीवित रहने के बारे में कोई सूचना न मिलना।
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II. वस्तुनिष्ठ आधार: वैवाहिक संबंधों का टूटना

धारा 13(1A) के तहत, कानून अदालती डिक्री के पालन न होने के आधार पर तलाक का प्रावधान करता है, भले ही शुरुआत में गलती किसी की भी रही हो। इस प्रावधान की व्याख्या जेठाभाई रतनशी लोडाया बनाम मानाबाई जेठाभाई लोडाया (1973) मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने की थी, जहाँ कोर्ट ने स्पष्ट किया कि धारा 13(1A) के तहत परीक्षण विशुद्ध रूप से वस्तुनिष्ठ (objective) हैं। इसके तहत मुख्य आधार हैं:

  • सहवास का पुनरारंभ न होना: न्यायिक अलगाव (Judicial Separation) की डिक्री पारित होने के एक वर्ष या उससे अधिक समय बाद भी यदि पक्षों के बीच सहवास शुरू नहीं होता है।
  • दांपत्य अधिकारों की बहाली का अभाव: दांपत्य अधिकारों की बहाली (Restitution of Conjugal Rights) की डिक्री के एक वर्ष बाद भी यदि पालन नहीं किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने सुश्री जॉर्डन डिएंगदेह बनाम एस.एस. चोपड़ा (1985) मामले में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों में इस आधार की उपस्थिति और इसकी एकरूपता पर विशेष टिप्पणी की थी।
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III. पत्नी के लिए विशेष अधिकार: धारा 13(2)

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(2) के तहत पत्नियों को कुछ अतिरिक्त आधार दिए गए हैं:

  • द्विविवाह (Bigamy): यदि पति ने अधिनियम लागू होने से पहले दूसरी शादी की थी और याचिका के समय दूसरी पत्नी जीवित हो।
  • गंभीर अपराध: यदि पति विवाह के बाद बलात्कार, अप्राकृतिक कृत्य (Sodomy) या पशुगमन (Bestiality) का दोषी पाया जाता है।
  • भरण-पोषण की डिक्री: हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम या सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की डिक्री पारित होने के एक वर्ष बाद भी यदि सहवास शुरू नहीं हुआ हो।
  • बाल विवाह का परित्याग: यदि विवाह 15 वर्ष की आयु से पहले हुआ था और पत्नी ने 15 से 18 वर्ष की आयु के बीच उस विवाह को अस्वीकार कर दिया हो। इस आधार को यूथ वेलफेयर फेडरेशन बनाम भारत संघ (1996) मामले में आंध्र हाईकोर्ट ने वैधानिक रूप से महत्वपूर्ण माना था।
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IV. आपसी सहमति से तलाक: धारा 13B

असफल शादियों से बाहर निकलने के लिए धारा 13B के तहत आपसी सहमति का प्रावधान है। इसके लिए आवश्यक शर्तें हैं कि पक्ष कम से कम एक वर्ष से अलग रह रहे हों, वे साथ रहने में असमर्थ हों और विवाह को समाप्त करने के लिए पारस्परिक रूप से सहमत हों।

V. विवाह का असुधार्य रूप से टूटना (Irretrievable Breakdown)

हालांकि “विवाह का असुधार्य रूप से टूटना” अभी तक वैधानिक आधार नहीं बना है, लेकिन न्यायपालिका ने इसे निरंतर मान्यता दी है। विधि आयोग की 71वीं रिपोर्ट की सिफारिशों का उल्लेख करते हुए अदालतों ने अक्सर इस पर जोर दिया है।

इस दिशा में सबसे ऐतिहासिक बदलाव 2023 में शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन मामले में आया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वह संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए इस आधार पर तलाक दे सकता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि कोई विवाह पूरी तरह से निष्प्रभावी, भावनात्मक रूप से समाप्त और सुधार की किसी भी संभावना से परे है, तो “पूर्ण न्याय” करने के उद्देश्य से विवाह विच्छेद की डिक्री दी जा सकती है।

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