इलाहाबाद हाईकोर्ट (लखनऊ बेंच) ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि एक सक्षम और स्वस्थ (able-bodied) पति अपनी पत्नी के भरण-पोषण की जिम्मेदारी से यह कहकर नहीं बच सकता कि वह बेरोजगार है। कोर्ट ने कहा कि कानूनन पति का यह कर्तव्य है कि वह शारीरिक श्रम करके भी पैसा कमाए और अपनी पत्नी का पालन-पोषण करे।
न्यायमूर्ति सौरभ लवानिया की पीठ ने पति द्वारा दायर उस आपराधिक निगरानी याचिका (Criminal Revision) को खारिज कर दिया, जिसमें फैमिली कोर्ट द्वारा पत्नी को 2,500 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण देने के आदेश को चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि तय की गई राशि बहुत ही कम है और इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
मामले का शीर्षक: निगरानीकर्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य व अन्य केस संख्या: क्रिमिनल रिवीजन नंबर 1359 ऑफ 2025 कोरम: न्यायमूर्ति सौरभ लवानिया फैसले की तारीख: 24 नवंबर, 2025
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला पारिवारिक विवाद और भरण-पोषण के दावे से जुड़ा है। पत्नी ने दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग की थी। पत्नी के अनुसार, उनका विवाह 28 नवंबर 2013 को जालंधर, पंजाब में हुआ था। शादी के कुछ समय बाद ही दहेज के लिए ससुराल वालों द्वारा उसे प्रताड़ित किया जाने लगा। पत्नी का आरोप था कि फरवरी 2021 में उसके साथ मारपीट की गई और उसे एक किराए के कमरे में 20 दिनों तक अकेले छोड़ दिया गया, जिसके बाद उसका भाई उसे वापस लखनऊ ले आया।
पत्नी ने दावा किया कि उसके पास आय का कोई साधन नहीं है, जबकि उसका पति फलों के व्यवसाय और किराए से लगभग 1 लाख रुपये प्रति माह कमाता है। उसने 50,000 रुपये प्रति माह भरण-पोषण की मांग की थी।
वहीं, फैमिली कोर्ट (लखनऊ) ने 20 अगस्त 2025 को अपने आदेश में तथ्यों पर विचार करते हुए पति को निर्देश दिया था कि वह पत्नी को 2,500 रुपये प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण का भुगतान करे। पति ने इसी आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।
पक्षों की दलीलें
निगरानीकर्ता (पति) ने हाईकोर्ट में तर्क दिया कि फैमिली कोर्ट का आदेश तथ्यात्मक और कानूनी रूप से गलत है। पति का कहना था कि वह बेरोजगार है और उसका फलों का व्यवसाय बंद हो चुका है। उसने यह भी आरोप लगाया कि उसकी पत्नी सिलाई-कढ़ाई में निपुण है और लखनऊ में काम करके अपना खर्चा चला रही है, इसलिए वह भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं है।
हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान पति के वकील ने मामले को मध्यस्थता केंद्र (Mediation Centre) भेजने का प्रस्ताव रखा और इसके लिए 25,000 रुपये जमा करने की बात कही।
फैमिली कोर्ट का तर्क: न्यूनतम मजदूरी को बनाया आधार
फैमिली कोर्ट ने अपने आदेश में उल्लेख किया था कि दोनों पक्षों ने अपनी आय के संबंध में कोई दस्तावेजी सबूत पेश नहीं किए थे। चूंकि पत्नी के आरोपों और पति की बेरोजगारी के दावों की पुष्टि साक्ष्यों (evidence) के बाद ही हो सकती थी, इसलिए कोर्ट ने एक तार्किक अनुमान लगाया।
फैमिली कोर्ट ने माना कि पति एक स्वस्थ व्यक्ति है। यदि वह एक मजदूर के रूप में भी काम करता है, तो उसे कम से कम 500 रुपये प्रतिदिन मिल सकते हैं। यदि वह महीने में 25 दिन भी काम करता है, तो उसकी आय 12,500 रुपये (500 x 25) होगी। इसी अनुमानित आय के आधार पर निचली अदालत ने 2,500 रुपये प्रति माह का गुजारा भत्ता तय किया था।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और फैसला
न्यायमूर्ति सौरभ लवानिया ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों (अंजू गर्ग बनाम दीपक कुमार गर्ग और चतुर्भुज बनाम सीता बाई) का हवाला देते हुए कहा कि धारा 125 Cr.P.C. का उद्देश्य सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना है। कोर्ट ने दोहराया कि पति का यह पवित्र कर्तव्य है कि वह पत्नी और बच्चों को आर्थिक सहायता प्रदान करे।
कोर्ट ने कहा:
“पति को पैसा कमाना ही होगा, भले ही इसके लिए उसे शारीरिक श्रम करना पड़े। यदि वह शारीरिक रूप से सक्षम है, तो वह कानून में उल्लिखित आधारों के अलावा अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता।”
हाईकोर्ट ने पति द्वारा मध्यस्थता के लिए 25,000 रुपये जमा करने के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि धारा 125 की अर्जी अक्टूबर 2021 में दायर की गई थी, जिसके अनुसार बकाया राशि लगभग 1,20,000 रुपये बनती है। ऐसे में 25,000 रुपये का प्रस्ताव उचित नहीं है।
अंत में, हाईकोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट द्वारा निर्धारित 2,500 रुपये की राशि पहले से ही बहुत कम (“meagre”) है और आदेश में कोई अवैधता या त्रुटि नहीं पाई गई है। तदनुसार, कोर्ट ने पति की याचिका को खारिज कर दिया।




