सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन शामिल थे, ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत दोषसिद्ध एक पति की सज़ा को रद्द कर दिया है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 के अंतर्गत आरोपी द्वारा पत्नी की मृत्यु पर स्पष्टीकरण न देना अकेला आधार बनाकर उसे दोषी ठहराया नहीं जा सकता, जब तक कि अभियोजन पक्ष पहले प्राथमिक रूप से दोष सिद्ध करने वाले तथ्य प्रस्तुत न कर दे।
न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए बरी किए जाने के निर्णय को बहाल करते हुए कहा कि इस मामले में हत्या के कोई निर्णायक प्रमाण नहीं थे।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले में अपीलकर्ता जगदीश गोंड पर उनकी पत्नी की मृत्यु के संबंध में मुकदमा चला। घटना 29 जनवरी 2017 की है, जब विवाह को केवल दो वर्ष ही हुए थे। जगदीश, जो सीमेंट फैक्ट्री में रात की पाली में कार्यरत थे, ने काम से लौटने के बाद अपनी पत्नी को घर में चारपाई पर बेसुध पाया। उन्होंने तुरंत अपने माता-पिता, गांव के कोटवार और मुलमुला थाना, जिला जांजगीर-चांपा को सूचित किया।

मृत्यु को आरंभ में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 174 के अंतर्गत “अचानक और अप्राकृतिक मृत्यु” के रूप में दर्ज किया गया। उसी दिन पंचनामा किया गया जिसमें मृतका के पिता और रिश्तेदार भी उपस्थित थे, और किसी ने भी कोई संदेह व्यक्त नहीं किया।
हालाँकि, मृतका के पिता ने 3 फरवरी 2017 को शिकायत दी, जिसके आधार पर धारा 498A, 306/34 IPC और वैकल्पिक रूप से धारा 302/34 IPC के तहत प्राथमिकी दर्ज हुई।
न्यायिक कार्यवाही: ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट
ट्रायल कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी करते हुए माना कि मृत्यु आत्महत्या प्रतीत होती है और हत्या का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में गर्दन के अगले भाग पर लिगेचर मार्क पाया गया, लेकिन यह गला घोंटने या फाँसी के सामान्य निशानों से मेल नहीं खाता था। डॉक्टरों की राय भी निश्चित नहीं थी कि मृत्यु हत्या थी या आत्महत्या।
हालांकि, राज्य सरकार की अपील पर छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता के माता-पिता को बरी रखा, परंतु पति को IPC की धारा 302 के अंतर्गत दोषी ठहराया। हाईकोर्ट ने कहा कि चूंकि पति-पत्नी साथ रह रहे थे, और मृत्यु ससुराल में हुई, इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के अनुसार पति पर यह उत्तरदायित्व था कि वह पत्नी की मृत्यु का स्पष्टीकरण दे। हाईकोर्ट ने आरोपी की यह दलील अस्वीकार कर दी कि वह रात के समय ड्यूटी पर था, क्योंकि इसका कोई दस्तावेज़ी समर्थन नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट ने केवल इस आधार पर सजा दी कि आरोपी ने अपनी अनुपस्थिति सिद्ध नहीं की और मृत्यु का स्पष्टीकरण नहीं दिया। न्यायालय ने इसे कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण बताया।
पीठ ने Trimukh Maroti Kirkan बनाम महाराष्ट्र राज्य [(2006) 10 SCC 681] में दिए गए निर्णय का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि यदि कोई तथ्य विशेष रूप से आरोपी के ज्ञान में है और वह स्पष्टीकरण नहीं देता है, तो यह अभियोजन पक्ष की सहायता कर सकता है — परंतु केवल इसी आधार पर दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता जब तक कि अभियोजन पहले कोई ठोस सबूत न प्रस्तुत करे।
कोर्ट ने यह भी रेखांकित किया कि अपीलकर्ता ने घटना के पहले ही क्षण में पुलिस को सूचित कर दिया था कि वह रात की पाली में कार्यरत था, और यह कोई बाद में दी गई सफ़ाई नहीं थी। लेकिन पुलिस ने कभी इस अलिबी की जांच ही नहीं की।
PW-3 द्वारा तैयार पंचनामा रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि शुरू में किसी ने कोई संदेह नहीं जताया। मृतका के रिश्तेदारों ने भी पुष्टि की कि आरोपी उस समय घर पर नहीं था। इसके विपरीत, बाद की गवाहियों में विरोधाभास थे।
पोस्टमार्टम रिपोर्ट (Exhibit P-16), जो PW-8 डॉक्टर द्वारा तैयार की गई थी, में यह बताया गया कि मृत्यु का कारण “asphyxia shock एवं sudden cardio-respiratory arrest” था। डॉक्टर ने पुलिस को स्पष्ट किया कि:
“…मृतका के शरीर पर मिला निशान फंदे के कारण था, और गला घोंटने का कोई निशान नहीं मिला… अतः मृत्यु आत्महत्या थी या हत्या, यह जांच का विषय है।”
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पाया कि 498A या किसी अन्य प्रावधान के तहत कोई मानसिक या शारीरिक उत्पीड़न का साक्ष्य नहीं था। मृतका के बारे में केवल यह कहा गया था कि वह “आलसी, बीमार और सोने वाली” थी, परंतु कोई प्रत्यक्ष हिंसा या क्रूरता का प्रमाण नहीं था।
अंतिम निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा:
“जब हत्या का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, और ट्रायल कोर्ट ने साक्ष्य के अभाव में बरी किया है, तो उच्च न्यायालय को ऐसे निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।”
पीठ ने निर्णय में लिखा:
“जब आरोपी के विरुद्ध अपराध का कोई ठोस आधार नहीं है, तो हम हाईकोर्ट द्वारा पारित दोषसिद्धि के आदेश को बरकरार नहीं रख सकते। ट्रायल कोर्ट का बरी करने वाला आदेश बहाल किया जाता है।”
अपील को स्वीकार करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि यदि अपीलकर्ता किसी अन्य मामले में वांछित नहीं है, तो उसे तुरंत रिहा किया जाए। किसी भी प्रकार की जमानत राशि समाप्त मानी जाएगी।
केस विवरण:
- मामला शीर्षक: जगदीश गोंड बनाम राज्य छत्तीसगढ़ एवं अन्य
- मामला संख्या: क्रिमिनल अपील संख्या 2605 ऑफ 2024
- पीठ: न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन