नकारात्मक रिपोर्ट (Negative Report) स्वीकार होने के बाद उसी घटना पर दूसरी निजी शिकायत विचारणीय नहीं: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि पुलिस द्वारा विस्तृत जांच के बाद नकारात्मक रिपोर्ट (Negative Report) दाखिल कर दी गई है और अदालत ने उसे स्वीकार कर लिया है, तो उसी शिकायतकर्ता द्वारा उसी घटना के संबंध में दूसरी निजी शिकायत (Private Complaint) पोषणीय (maintainable) नहीं है।

जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने रानीमोल और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य (Criminal Appeal No. 4931 of 2025) के मामले में अपील की अनुमति देते हुए केरल हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि जांच एजेंसी द्वारा क्लीन चिट दिए जाने के बाद, बिना नकारात्मक रिपोर्ट को चुनौती दिए अभियुक्तों पर मुकदमा चलाने का प्रयास करना “कानून की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग” है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला दूसरे प्रतिवादी (वास्तविक शिकायतकर्ता) द्वारा दर्ज कराई गई एक प्राथमिकी (FIR) से उत्पन्न हुआ था। आरोपों में भारतीय दंड संहिता (IPC), 1860 की धारा 143, 147, 148, 149, 323, 324 और 447 के तहत अपराध शामिल थे। मुख्य आरोप यह था कि अपीलकर्ताओं ने अपने पतियों के साथ मिलकर शिकायतकर्ता की दुकान के दक्षिणी आंगन में उन पर हमला किया।

जांच के बाद, वर्ष 2015 में आरोप पत्र (Charge Sheet) दाखिल किया गया। हालांकि, जांच एजेंसी ने वर्तमान अपीलकर्ताओं (अपीलकर्ता संख्या 1 से 3) के संबंध में एक नकारात्मक रिपोर्ट प्रस्तुत की और उन्हें आरोप पत्र से बाहर रखा। ट्रायल कोर्ट ने इस नकारात्मक रिपोर्ट पर संज्ञान लिया और शेष आरोपियों के खिलाफ मुकदमा (CC No. 295/2016) शुरू हो गया।

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शिकायतकर्ता ने उस समय नकारात्मक रिपोर्ट के खिलाफ कोई ‘प्रोटेस्ट याचिका’ (Protest Petition) दायर नहीं की। हालांकि, लगभग ढाई साल बीत जाने के बाद, उन्होंने उसी घटना के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 200 के तहत एक निजी शिकायत दर्ज कराई।

मजिस्ट्रेट द्वारा शुरू की गई कमिटल कार्यवाही को चुनौती देते हुए, अपीलकर्ताओं ने केरल हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने यह कहते हुए उनकी याचिका खारिज कर दी थी कि शिकायत में IPC की धारा 308 के तहत एक नया अपराध जोड़ा गया है, इसलिए कार्यवाही जारी रहनी चाहिए।

पक्षकारों की दलीलें

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि दूसरी शिकायत शुरू करना स्पष्ट रूप से “कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग” है।

इसके विपरीत, दूसरे प्रतिवादी के वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि अपवादात्मक मामलों में दूसरी शिकायत की जा सकती है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सुरेंद्र कौशिक और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2013) के फैसले का हवाला दिया। वकील ने दलील दी कि चूंकि आरोप में एक अलग अपराध शामिल किया गया है, अधिक आरोपी जोड़े गए हैं, और जांच एजेंसी ने उक्त अपराध की जांच नहीं की थी, इसलिए प्रक्रिया जारी रखने में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।

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न्यायालय का विश्लेषण और टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिवादी की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि यह मामला ऐसा है जिसमें “निजी प्रतिवादी द्वारा कानून की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग किया गया है।”

पीठ ने कहा कि एक विस्तृत जांच की गई थी और एक नकारात्मक रिपोर्ट दाखिल की गई थी, जिसे प्रतिवादी ने चुनौती नहीं दी थी। न्यायालय ने कहा: “कथित घटना वही है। अपीलकर्ताओं को पहले की प्राथमिकी (FIR) में आरोपी बनाया गया था और बाद में उन्हें जांच से बाहर कर दिया गया। केवल उसी घटना के लिए एक अपराध जोड़कर, और उसी मुखबिर द्वारा, संहिता की धारा 200 के माध्यम से दूसरी शिकायत निश्चित रूप से पोषणीय नहीं है।”

सुरेंद्र कौशिक मामले पर प्रतिवादी की निर्भरता के संबंध में, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उस फैसले का सिद्धांत वास्तव में अपीलकर्ताओं के पक्ष में है। पीठ ने उस फैसले के पैरा 24 को उद्धृत किया, जो स्थापित करता है कि एक ही घटना के लिए दो FIR दर्ज करने की अनुमति नहीं है, जब तक कि घटना के अलग-अलग संस्करण (Rival Versions) न हों।

वर्तमान मामले में अंतर स्पष्ट करते हुए कोर्ट ने कहा: “बाद की निजी शिकायत उसी मुखबिर द्वारा दायर की गई है, जो उसी घटना से संबंधित है… हम न तो किसी गंभीर मामले से निपट रहे हैं और न ही किसी तीसरे पक्ष द्वारा अन्य आरोपियों के खिलाफ नए आरोप लगाने वाली शिकायत से।”

आरोपियों की स्वतंत्रता पर जोर देते हुए पीठ ने टिप्पणी की: “महज यह तथ्य कि पहली एफआईआर में नामित आरोपियों को दूसरी शिकायत में भी शामिल किया गया है, शिकायत को विचारणीय नहीं बनाता। हम किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता से निपट रहे हैं और इसलिए, दोहरे खतरे (Double Jeopardy) का प्रश्न भी उठेगा।”

निर्णय

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सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट को Cr.P.C. की धारा 482 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हुए कार्यवाही को रद्द कर देना चाहिए था, जिसे शीर्ष अदालत ने “तंग करने वाला” (Vexatious) करार दिया।

परिणामस्वरूप, कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की फाइल पर अपीलकर्ताओं के खिलाफ लंबित कार्यवाही को खारिज (Quash) कर दिया। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस आदेश का पहले की एफआईआर से संबंधित लंबित मुकदमे पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

केस विवरण:

  • केस शीर्षक: रानीमोल और अन्य बनाम केरल राज्य और अन्य
  • केस संख्या: क्रिमिनल अपील संख्या 4931/2025
  • कोरम: जस्टिस एम.एम. सुंदरेश और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा

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