ओडिशा हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम के तहत दिया जाने वाला भरण-पोषण आदेश पारित होने की तारीख से नहीं, बल्कि आवेदन दायर करने की तारीख से प्रभावी होगा, खासकर तब जब पत्नी ने अंतरिम राहत के अपने दावा को लगातार बरकरार रखा हो। अदालत ने पत्नी को मिलने वाला मासिक भरण-पोषण बढ़ाकर ₹10,000 कर दिया और ₹3 लाख अतिरिक्त मुआवजा देते हुए कुल मुआवजा ₹6 लाख तय किया।
न्यायमूर्ति आर के पटनायक ने यह फैसला 3 दिसंबर को सुनाया, जिसे सोमवार को हाई कोर्ट पोर्टल पर अपलोड किया गया। यह आदेश निडागंती लक्ष्मी राज्यम और उनके पति मदन मोहन पटनायक द्वारा दायर पारस्परिक पुनरीक्षण याचिकाओं में निचली अदालत के फैसलों में संशोधन करते हुए दिया गया।
पत्नी ने 2013 में घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत आवेदन दायर किया था। अप्रैल 2014 में ट्रायल कोर्ट ने ₹6,000 मासिक भरण-पोषण और ₹3 लाख मुआवजा देने का आदेश दिया था। अपीलीय अदालत ने भरण-पोषण राशि बढ़ाकर ₹8,000 कर दी, लेकिन मुआवजा यथावत रखा। इसके बाद दोनों पक्ष हाई कोर्ट पहुंचे—पत्नी ने और अधिक राहत की मांग की, जबकि पति ने वित्तीय आदेशों को चुनौती दी।
न्यायालय ने कहा कि आदेश की तारीख से भरण-पोषण देना “उचित नहीं” है, क्योंकि पत्नी ने अंतरिम राहत का दावा छोड़ा नहीं था और वह 2013 से लगातार कार्यवाही का हिस्सा रही।
अदालत ने माना कि दंपत्ति उम्रदराज़ हैं और कई वर्षों से अलग रह रहे हैं। दोनों को पेंशन मिलती है, लेकिन पत्नी की पेंशन ₹10,000 से कम होने के कारण वह पति की तुलना में आर्थिक रूप से कमजोर स्थिति में है, जिसकी पेंशन “काफी बेहतर” है। इसी आधार पर मासिक भरण-पोषण बढ़ाकर ₹10,000 किया गया।
अदालत ने निर्देश दिया कि बढ़ी हुई राशि प्रभावी मानकर आवेदन की तारीख से बकाया की पुनर्गणना की जाए और उसे एकमुश्त या दो किस्तों में तीन महीने के भीतर चुकाया जाए। पहले की ₹8,000 दर पर ही जून 2025 तक बकाया ₹9.58 लाख हो चुका था।
जहां अदालत ने ₹10,000 मासिक आवास व्यय की मांग यह कहते हुए ठुकरा दी कि उम्र और लंबे समय से अलग रहने की स्थिति में यह उचित नहीं है, वहीं पत्नी की चिकित्सीय एवं अन्य आवश्यकताओं को देखते हुए अतिरिक्त ₹3 लाख मुआवजा दिया।
अदालत ने यह भी दर्ज किया कि पति ने सेवानिवृत्ति लाभ प्राप्त किए थे, लेकिन पत्नी के साथ कोई हिस्सा साझा नहीं किया। बेटे की आय और स्थिति स्पष्ट नहीं होने के कारण अदालत ने माना कि पत्नी को स्वयं और बेटे के लिए भी देखभाल करनी पड़ रही है।
जहां पति की पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गई, वहीं पत्नी की याचिका आंशिक रूप से स्वीकार की गई। अदालत ने तीन महीने के भीतर सभी निर्देशों का पालन सुनिश्चित करने को कहा।

