दिल्ली हाईकोर्ट ने दहेज हत्या मामले में आरोपी पति को जमानत दी: कोर्ट ने कहा, क्रूरता के आरोपों की मेडिकल पुष्टि नहीं और लंबी हिरासत चिंता का विषय

दिल्ली हाईकोर्ट ने दहेज हत्या के एक मामले में आरोपी पति को नियमित जमानत दे दी है। कोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि मृतka के शरीर पर चोट के निशानों की मेडिकल पुष्टि न होना और दहेज की मांग के समय-बद्ध आरोपों का अभाव, कथित क्रूरता और मृत्यु के बीच आवश्यक ‘जीवंत संबंध’ (live link) पर “प्रथम दृष्टया संदेह” पैदा करता है।

जस्टिस संजीव नरूला की पीठ ने मामले आकाश गुप्ता बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) (2025:DHC:10484) में फैसला सुनाते हुए इस बात पर जोर दिया कि मुकदमे में किसी सार्थक प्रगति के बिना लंबे समय तक जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के अधिकार को प्रभावित करता है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह आदेश भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बीएनएसएस) की धारा 483 (पहले सीआरपीसी की धारा 439) के तहत दायर एक जमानत याचिका पर आया। यह मामला पुलिस स्टेशन भलस्वा डेयरी में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A (क्रूरता), 304B (दहेज हत्या) और 34 के तहत दर्ज एफआईआर संख्या 374/2023 से संबंधित है।

याचिकाकर्ता आकाश गुप्ता का विवाह 1 दिसंबर 2016 को मृतका मोनी गुप्ता से हुआ था। 4 अप्रैल 2023 को, मृतका को जहर खाने के संदेह में बीजेआरएम अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां बाद में उसे मृत घोषित कर दिया गया। उनकी मृत्यु के बाद, उनके पिता ने आरोप लगाया कि शादी के शुरुआती वर्षों से ही आकाश और उसके परिवार द्वारा उनकी बेटी को दहेज के लिए लगातार परेशान किया जा रहा था।

अभियोजन पक्ष का आरोप था कि शादी के समय लगभग 2,51,000 रुपये का दहेज दिया गया था और 2018 में 2,00,000 रुपये अतिरिक्त दिए गए थे, फिर भी मांग जारी रही। मृतका की नाबालिग बेटी ने भी सीआरपीसी की धारा 164 के तहत बयान दर्ज कराया था, जिसमें उसने अपनी मां के साथ हिंसा होने का आरोप लगाया था।

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पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सुश्री नंदिता राव ने तर्क दिया कि आरोपी को झूठा फंसाया गया है। उन्होंने कहा कि शादी के छह साल के दौरान कभी भी क्रूरता की कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई गई। उन्होंने दलील दी कि अभियोजन पक्ष ने कथित दहेज की मांग की कोई विशिष्ट तारीख या समय बताए बिना केवल “व्यापक और अस्पष्ट आरोप” लगाए हैं।

नाबालिग बच्ची के बयान के संबंध में, सुश्री राव ने तर्क दिया कि यह घटना के लगभग दो महीने बाद दर्ज किया गया था और इसमें “सिखाए-पढ़ाए” (tutoring) जाने की संभावना है। उन्होंने एक महत्वपूर्ण विरोधाभास को उजागर किया: जबकि बच्चे ने मारपीट और जलने की चोटों का आरोप लगाया था, पोस्टमार्टम रिपोर्ट में “मृतका के शरीर पर कोई बाहरी चोट नहीं” दर्ज थी।

आवेदक ने यह भी कहा कि वह दो साल और छह महीने से अधिक समय से हिरासत में है। आरोप तय होने के बावजूद, 29 गवाहों में से किसी का भी अभी तक परीक्षण (examination) नहीं किया गया है, जिससे मुकदमे के जल्द समाप्त होने की संभावना कम है।

राज्य की ओर से एपीपी श्री हितेश वाली ने जमानत का विरोध किया। उन्होंने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 113B के तहत वैधानिक उपधारणा (statutory presumption) का हवाला दिया, जो शादी के सात साल के भीतर अप्राकृतिक मृत्यु पर लागू होती है। उन्होंने मृतका के पिता के पूरक बयान का उल्लेख किया, जिसमें आरोप लगाया गया था कि मृतका को 20-25 बार पीटा गया था और घटना से एक दिन पहले, 3 अप्रैल 2023 को, उसने अपनी मां को फोन करके मारपीट और पैसे के लिए दबाव डालने की बात कही थी।

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कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

जस्टिस संजीव नरूला ने जांच की कि क्या धारा 113B के तहत उपधारणा के लिए आवश्यक तत्व प्रथम दृष्टया पूरे होते हैं, विशेष रूप से यह आवश्यकता कि क्या मृतका को उसकी मृत्यु से “ठीक पहले” (soon before her death) दहेज की मांग के संबंध में क्रूरता का शिकार बनाया गया था।

कोर्ट ने नाबालिग बच्चे की गवाही में विरोधाभास पर गौर किया। जस्टिस नरूला ने कहा:

“एक बाल गवाह का बयान निश्चित रूप से प्रासंगिक है और इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है; हालांकि इस चरण में, केवल यह देखा जा सकता है कि गवाह की कम उम्र, बयान दर्ज करने में देरी, और हाल ही में हुए हमले की मेडिकल पुष्टि के अभाव को देखते हुए, परीक्षण के दौरान इसके महत्व और विश्वसनीयता का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करने की आवश्यकता होगी।”

दहेज की मांग के आरोपों के संबंध में, कोर्ट ने पाया कि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री, जिसमें मृतका और उसके ससुर के बीच की बातचीत भी शामिल है, घटना से ठीक पहले दहेज की मांग का कोई विशिष्ट संदर्भ नहीं दिखाती है।

कोर्ट ने टिप्पणी की:

“इस चरण में, चिकित्सकीय रूप से पुष्ट चोटों की अनुपस्थिति और दहेज की मांग के समय-बद्ध आरोपों का अभाव, इस बात पर प्रथम दृष्टया संदेह पैदा करता है कि कथित क्रूरता और मृत्यु के बीच आवश्यक ‘जीवंत संबंध’ (live link) स्थापित होता है या नहीं।”

आवेदक की दो साल और छह महीने से अधिक की हिरासत अवधि और इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि अभी तक किसी भी अभियोजन गवाह का परीक्षण नहीं किया गया है, कोर्ट ने कहा कि आगे की कैद अनुचित होगी। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट की इस चेतावनी को दोहराया कि जमानत को प्री-ट्रायल सजा के रूप में नहीं रोका जाना चाहिए।

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फैसला

दिल्ली हाईकोर्ट ने जमानत याचिका स्वीकार कर ली और आकाश गुप्ता को 25,000 रुपये के निजी मुचलके और इतनी ही राशि के दो जमानतियों को पेश करने पर रिहा करने का निर्देश दिया।

कोर्ट ने कड़ी शर्तें भी रखी, जिनमें शामिल हैं:

  • आवेदक बिना अनुमति के देश नहीं छोड़ेगा।
  • निर्देशानुसार ट्रायल कोर्ट के समक्ष उपस्थित होगा।
  • वह मामले के तथ्यों से परिचित किसी भी व्यक्ति को प्रेरित या धमकाएगा नहीं।
  • उसे हर तीन महीने के पहले शुक्रवार को संबंधित पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करना होगा।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये टिप्पणियाँ केवल जमानत याचिका का निर्णय लेने के लिए हैं और इनका मुकदमे के गुण-दोष (merits) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।

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