इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि एक ही तथ्य पर आधारित विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही और आपराधिक मुकदमा एक साथ चल सकते हैं। कोर्ट ने भारत सरकार टकसाल (India Government Mint), नोएडा के एक कर्मचारी द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने अपने खिलाफ चल रही विभागीय जांच पर रोक लगाने की मांग की थी।
न्यायमूर्ति अजय भनोट की पीठ ने अपने फैसले में कहा कि एक विभागीय जांच को “अनिश्चित काल तक लंबित नहीं रखा जा सकता” ताकि आपराधिक मुकदमे के निष्कर्ष का इंतजार किया जा सके, खासकर जब संस्थान इतने संवेदनशील कार्यों में लगा हो। कोर्ट ने आनंद कुमार द्वारा दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसने कथित चोरी के लिए शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही को चुनौती दी थी।
मामले की पृष्ठभूमि
 
याचिकाकर्ता आनंद कुमार, भारत सरकार टकसाल, नोएडा में असिस्टेंट-ग्रेड III के पद पर कार्यरत है। फैसले में दर्ज तथ्यों के अनुसार, याचिकाकर्ता को “19.12.2024 को सीआईएसएफ के सुरक्षा कर्मियों द्वारा 20 रुपये के 13 सिक्के (कुल ₹260) की चोरी करने का प्रयास करते हुए पकड़ा गया था।”
इस घटना के बाद, एक प्राथमिकी (केस क्राइम नंबर 0561/2024) दर्ज की गई, और आपराधिक जांच 27.12.2024 को निचली अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने के साथ समाप्त हुई।
इसके साथ ही, भारत सरकार टकसाल के अधिकारियों ने याचिकाकर्ता के खिलाफ अलग से अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू की। उसे 19.12.2024 के एक आदेश द्वारा निलंबित कर दिया गया था। एक विभागीय आरोप पत्र जारी किया गया, जिसमें “आरोप का अनुच्छेद” (Article of Charge) तय किया गया कि याचिकाकर्ता को “20 रुपये के 13 सिक्के चोरी करने का प्रयास करते हुए… रंगे हाथ पकड़ा गया।”
याचिकाकर्ता ने निलंबन आदेश और विभागीय कार्यवाही दोनों को चुनौती देते हुए रिट-ए नंबर 1738/2025 दायर की थी।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता के वकील श्री नरेंद्र चतुर्वेदी ने तर्क दिया कि विभागीय जांच और आपराधिक कार्यवाही एक साथ नहीं चल सकती। यह तर्क दिया गया कि दोनों कार्यवाहियों में सबूत समान हैं, और विभागीय जांच को जारी रखने से याचिकाकर्ता के प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न होगा और उसे बचाव में नुकसान होगा।
प्रतिवादी (भारत संघ) की ओर से श्री प्रांजल मेहरोत्रा ने प्रस्तुत किया कि दोनों कार्यवाहियां एक साथ चल सकती हैं। वकील ने तर्क दिया कि आपराधिक मामले और विभागीय जांच में प्रस्तावित सबूत एक जैसे नहीं हैं, हालांकि उनमें “कुछ सबूत ओवरलैप” (overlapping evidences) हो सकते हैं। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि “विभागीय जांच और आपराधिक कार्यवाही का उद्देश्य पूरी तरह से अलग है।”
कानूनी मुद्दा और कोर्ट का विश्लेषण
कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि “क्या इस मामले के तथ्यों में, आपराधिक मुकदमे के लंबित रहने तक विभागीय जांच को रोका जाना चाहिए?”
कोर्ट ने संबंधित कानूनी मिसालों की विस्तृत समीक्षा की और कहा कि कैप्टन एम. पॉल एंथोनी बनाम भारत गोल्ड माइन्स लिमिटेड का निर्णय (जिसमें रोक का सुझाव दिया गया था) “सार्वभौमिक रूप से लागू होने वाला कानून” (universal application) नहीं है और इसे इसके “अद्वितीय तथ्यों” के संदर्भ में ही समझा जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति अजय भनोट ने फैसले के खंड VI, “आपराधिक परीक्षण और विभागीय जांच: सामान्य अवलोकन” में दोनों कार्यवाहियों के बीच मूलभूत अंतरों पर जोर दिया।
फैसले में कहा गया है कि एक आपराधिक मुकदमे का उद्देश्य “समाज के खिलाफ” किए गए अपराधों के लिए अपराधियों को न्याय के कटघरे में लाना है, जिसमें सबूत का मानक “उचित संदेह से परे” (beyond reasonable doubt) होता है।
इसके विपरीत, एक विभागीय जांच का उद्देश्य संकीर्ण होता है: “कर्मचारियों के बीच समग्र संस्थागत अनुशासन और अखंडता बनाए रखना।” फैसले में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि ऐसी जांचों में, “सबूत का मानक… संभावनाओं की प्रबलता” (preponderance of probability) होता है।
इस मामले के तथ्यों पर इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, कोर्ट ने पाया:
- विभागीय जांच और आपराधिक आरोप पत्र में गवाहों की सूची अलग-अलग है, “हालांकि यह स्वीकार किया गया है कि कुछ गवाह ओवरलैप हैं।” कोर्ट ने माना कि यह “स्वयं दर्शाता है कि विभागीय कार्यवाही का दायरा… अभियोजन पक्ष के मामले से भिन्न है।”
- यह मामला “तथ्य और कानून के जटिल प्रश्नों” (complicated questions of fact and law) से जुड़ा नहीं है। वास्तव में, कार्यवाही मुख्य रूप से तथ्यों पर आधारित है।
- आपराधिक मुकदमा अभी शुरू नहीं हुआ है, और कोर्ट ने “आपराधिक न्याय प्रणाली में लंबे विलंब” (long delays in the criminal justice system) का “न्यायिक संज्ञान” (judicial notice) लिया। इसलिए, “आपराधिक मुकदमे का अंत देखे बिना विभागीय जांच को अनिश्चित काल तक लंबित नहीं रखा जा सकता।”
निष्कर्ष और अंतिम निर्णय
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि “जांच जारी रखने की अनिवार्यता, उसे रोकने के परिणामों से अधिक महत्वपूर्ण है।”
फैसले में भारत सरकार टकसाल के “अत्यंत महत्वपूर्ण कार्यों” (very critical functions) का उल्लेख किया गया, जिनका “देश की अर्थव्यवस्था पर सीधा असर” पड़ता है। कोर्ट ने माना कि “निष्पक्ष कार्यवाही अपनाकर जांच का शीघ्र समापन कर्मचारियों के व्यक्तिगत आचरण में शुचिता और समग्र संस्थागत कामकाज में जवाबदेही सुनिश्चित करेगा।”
अपने निष्कर्ष में, कोर्ट ने कहा कि जांच को रोकने के “गंभीर परिणाम” (grave consequences) होंगे।
फैसले में लिखा है, “याचिकाकर्ता पर भारत सरकार टकसाल से सरकारी धन की चोरी के कदाचार का आरोप है।” “गंभीर कदाचार के आरोपी याचिकाकर्ता को शीघ्र विभागीय प्रक्रियाओं के अधीन करने के बजाय, उसे इस तरह काम करने देना जैसे कि यह सामान्य बात हो, भारत सरकार टकसाल के संस्थागत हितों और विभाग में कानून के शासन के लिए अनुकूल नहीं होगा।”
कोर्ट ने पाया कि जांच पर रोक लगाने से “जवाबदेही की कमी की संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा” और “दंड से मुक्ति की भावना” पैदा होगी।
यह पाते हुए कि विभागीय जांच और आपराधिक मुकदमे को एक साथ चलाना “वांछनीय और उचित” (both desirable and advisable) है, कोर्ट ने रिट याचिका खारिज कर दी।
कोर्ट ने निर्देश दिया है कि जांच “तीन महीने की अवधि के भीतर पूरी की जाए” और याचिकाकर्ता को “जांच कार्यवाही में सहयोग करने का” आदेश दिया।


 
                                     
 
        



