धारा 138 NI Act | यदि शिकायतकर्ता सटीक ऋण साबित करने में विफल रहता है तो दायित्व की उपधारणा का खंडन हो जाता है: केरल हाईकोर्ट

केरल हाईकोर्ट ने श्री गोकुलम चिट एंड फाइनेंस कंपनी (प्राईवेट) लिमिटेड द्वारा दायर एक आपराधिक अपील को खारिज कर दिया है और चेक बाउंस मामले में आरोपी की रिहाई (बरी) को बरकरार रखा है। कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि शिकायतकर्ता यह साबित करने में विफल रहा कि चेक किसी “कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण” (Legally Enforceable Debt) के भुगतान के लिए जारी किया गया था। कोर्ट ने सबूतों में महत्वपूर्ण कमियों, विशेष रूप से कथित गारंटी समझौते (Guarantee Agreement) को पेश करने में विफलता का उल्लेख किया।

जस्टिस जॉनसन जॉन की पीठ ने अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय (एडहॉक)-II, थोडुपुझा के फैसले की पुष्टि की, जिसने निचली अदालत द्वारा आरोपी अनु थॉमस को दोषी ठहराए जाने के फैसले को पलट दिया था। हाईकोर्ट ने पाया कि शिकायतकर्ता के गवाहों द्वारा दिए गए साक्ष्य अस्पष्ट थे और उन्हें लेनदेन या चेक निष्पादन (Execution) के बारे में कोई प्रत्यक्ष जानकारी नहीं थी।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 (NI Act) की धारा 138 के तहत श्री गोकुलम चिट एंड फाइनेंस कंपनी द्वारा दायर एक शिकायत से उत्पन्न हुई थी। कंपनी का आरोप था कि आरोपी के पति ने उनकी थोडुपुझा शाखा द्वारा संचालित दो चिट्टियों की सदस्यता ली थी, जिसके लिए आरोपी पत्नी गारंटर बनी थी।

शिकायतकर्ता के अनुसार, सब्सक्राइबर (पति) ने किस्तों का भुगतान नहीं किया। इस देनदारी को चुकाने के लिए, आरोपी ने कथित तौर पर 21 जुलाई, 2005 को 2,10,279 रुपये का चेक जारी किया। बैंक में पेश करने पर यह चेक “फंड की अपर्याप्तता” के कारण अनादरित (Dishonour) हो गया। वैधानिक नोटिस भेजने के बावजूद राशि का भुगतान नहीं किया गया।

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शुरुआत में, न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी, थोडुपुझा ने आरोपी को दोषी ठहराया और उसे एक वर्ष के साधारण कारावास की सजा सुनाई और 2,10,279 रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया। हालांकि, अपील पर सत्र न्यायालय ने इस सजा को रद्द कर दिया और आरोपी को बरी कर दिया, जिसके बाद फाइनेंस कंपनी ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता (शिकायतकर्ता) के वकील ने तर्क दिया कि सत्र न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को रद्द करके गलती की है। यह तर्क दिया गया कि चूंकि आरोपी ने चेक पर अपने हस्ताक्षर को विवादित नहीं किया है, इसलिए शिकायतकर्ता NI Act के तहत वैधानिक उपधारणाओं (Presumptions) का लाभ पाने का हकदार है।

इसके विपरीत, आरोपी के वकील ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता चेक के निष्पादन और जारी करने की विशिष्ट तारीख का खुलासा करने में विफल रहा है। बचाव पक्ष का कहना था कि कंपनी ने चिट्टी की राशि देते समय आरोपी और उसके पति से खाली चेक प्राप्त किए थे और बाद में उनका दुरुपयोग किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बचाव पक्ष ने बताया कि शिकायतकर्ता ने आरोपी द्वारा निष्पादित कथित गारंटी समझौता पेश नहीं किया।

कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

हाईकोर्ट ने शिकायतकर्ता के गवाहों, पीडब्ल्यू1 (असिस्टेंट बिजनेस मैनेजर) और पीडब्ल्यू2 (ब्रांच मैनेजर) के बयानों का बारीकी से विश्लेषण किया।

कोर्ट ने नोट किया कि पीडब्ल्यू1 (पावर ऑफ अटॉर्नी होल्डर) ने जिरह में स्वीकार किया कि “उन्हें चिट्टी खाते में देनदारी या भुगतान के बारे में कोई प्रत्यक्ष जानकारी नहीं है और वह केवल उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर गवाही दे रहे हैं।” पीडब्ल्यू1 ने यह भी पुष्टि की कि आरोपी ने अपने पति के डिफ़ॉल्ट पर किस्तों का भुगतान करने के लिए कोई गारंटी समझौता निष्पादित नहीं किया था।

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ब्रांच मैनेजर (पीडब्ल्यू2) की गवाही के संबंध में, कोर्ट ने पाया कि यद्यपि उन्होंने दावा किया कि आरोपी ने उनकी उपस्थिति में चेक पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन उनका साक्ष्य “मूल रूप से अस्पष्ट” था। कोर्ट ने कहा:

“यह ध्यान देने योग्य है कि पीडब्ल्यू2 ने उस तारीख के बारे में कुछ भी नहीं बताया है जिस दिन आरोपी ने चेक पर हस्ताक्षर किए और उसे सौंपा। शिकायतकर्ता कंपनी ने आरोपी द्वारा कंपनी के पक्ष में निष्पादित कथित गारंटी समझौता भी पेश नहीं किया है।”

कोर्ट ने भुगतान के संबंध में विरोधाभासों को भी उजागर किया। पीडब्ल्यू2 ने स्वीकार किया कि आरोपी के पति ने फरवरी 2005 और दिसंबर 2005 में भुगतान किया था, जबकि विवादित चेक 21 जुलाई, 2005 का था। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय दशरथभाई त्रिकमभाई पटेल बनाम हितेश महेंद्रभाई पटेल [(2023) 1 SCC 578] का हवाला देते हुए दोहराया कि “चेक को उसकी प्रस्तुति की तारीख पर कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण का प्रतिनिधित्व करना चाहिए।”

इसके अलावा, कोर्ट ने NI Act की धारा 139 के तहत उपधारणा का खंडन करने के लिए आरोपी से अपेक्षित सबूत के मानक पर चर्चा की। बासालिंगप्पा बनाम मुदीबासप्पा और एम.एस. नारायण मेनन बनाम केरल राज्य का हवाला देते हुए, जस्टिस जॉनसन जॉन ने टिप्पणी की:

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“यह अच्छी तरह से स्थापित है कि एन.आई. एक्ट की धारा 118 और 139 के तहत वैधानिक उपधारणा का खंडन करने के लिए आरोपी से अपेक्षित सबूत का मानक ‘संभावनाओं की प्रबलता’ (Preponderance of probabilities) है और आरोपी को अपना मामला उचित संदेह से परे (Beyond reasonable doubt) साबित करने की आवश्यकता नहीं है।”

फैसला

हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि आरोपी ने सफलतापूर्वक एक संभावित बचाव (Probable defence) खड़ा किया है, जिससे कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण के अस्तित्व पर गंभीर संदेह पैदा होता है। कोर्ट ने फैसला सुनाया:

“संपूर्ण साक्ष्यों के सावधानीपूर्वक पुनर्मूल्यांकन पर, मैं पाता हूं कि शिकायतकर्ता यह साबित करने में सफल नहीं हुआ है कि आरोपी ने कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण के निर्वहन में प्रदर्श P4 चेक जारी किया था और पीडब्ल्यू1 और पीडब्ल्यू2 की जिरह में सामने आए भौतिक विरोधाभासों को देखते हुए, मैं पाता हूं कि आक्षेपित निर्णय में लिया गया दृष्टिकोण एक संभावित दृष्टिकोण है।”

नतीजतन, अपील खारिज कर दी गई।

मामले का विवरण:

  • केस टाइटल: श्री गोकुलम चिट एंड फाइनेंस कंपनी (प्राईवेट) लिमिटेड बनाम अनु थॉमस और अन्य
  • केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर 787/2008
  • कोर्ट: केरल हाईकोर्ट (एर्नाकुलम)
  • कोरम: जस्टिस जॉनसन जॉन
  • साइटेशन: 2025:KER:96683

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