सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC/ST Act) के तहत दर्ज एक एफआईआर को रद्द करते हुए इसे “कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग” (Abuse of process of law) करार दिया है। कोर्ट ने पाया कि शिकायतकर्ता द्वारा उसी दिन दायर किए गए दीवानी मुकदमे (Civil Suit) और एफआईआर के आरोपों में विरोधाभास था।
न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने झारखंड हाईकोर्ट के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें हाईकोर्ट ने एफआईआर रद्द करने से इनकार कर दिया था।
मामला क्या था?
यह मामला रांची के कांके पुलिस स्टेशन में दर्ज एफआईआर संख्या 18/2022 से संबंधित है। अपीलकर्ता अमल कुमार और अन्य के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(g) और (s) के तहत मामला दर्ज किया गया था। शिकायतकर्ता का आरोप था कि आरोपियों ने साजिश रचकर, दस्तावेज फर्जीवाड़ा कर उनकी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश की और उन्हें जातिसूचक गालियां दीं।
हाईकोर्ट ने यह कहते हुए एफआईआर रद्द करने से मना कर दिया था कि तथ्यों के एक ही समूह पर दीवानी विवाद और आपराधिक मामला दोनों चल सकते हैं और आरोपियों पर विशिष्ट आरोप हैं। इसके बाद आरोपियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं का पक्ष: अपीलकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता शोएब आलम ने तर्क दिया कि मुख्य अपीलकर्ता ने 2020 में उक्त संपत्ति खरीदी थी और वह उस पर काबिज थे। उन्होंने कोर्ट को बताया कि यह एफआईआर 10 लाख रुपये की रंगदारी न देने पर एक पंकज सिंह नामक व्यक्ति के इशारे पर दर्ज कराई गई थी।
अधिवक्ता ने इस बात पर जोर दिया कि 21 जनवरी 2022 को कथित घटना बताई गई, जिसकी एफआईआर 25 जनवरी 2022 को दर्ज हुई। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि शिकायतकर्ता ने उसी दिन (25 जनवरी 2022) संपत्ति को लेकर एक दीवानी मुकदमा (Civil Suit) भी दायर किया था, लेकिन उस मुकदमे में 21 जनवरी की कथित घटना का कोई जिक्र ही नहीं था।
प्रतिवादियों का पक्ष: शिकायतकर्ता के वकील अभिषेक राय ने तर्क दिया कि आरोपी एससी/एसटी समुदाय की संपत्तियों को हड़पने के रैकेट में शामिल हैं और उन्होंने फर्जी दस्तावेजों के जरिए कब्जा किया है। उन्होंने कहा कि मामले की सुनवाई ट्रायल कोर्ट में होनी चाहिए।
राज्य सरकार के वकील ने भी एफआईआर का समर्थन करते हुए कहा कि जांच पूरी होने दी जानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने रिकॉर्ड का अवलोकन करने के बाद पाया कि एफआईआर और उसी दिन दायर किए गए दीवानी मुकदमे के तथ्यों में स्पष्ट अंतर है।
- तथ्यों में विरोधाभास: कोर्ट ने कहा कि एफआईआर में आरोप लगाया गया कि आरोपी 21 जनवरी 2022 को जमीन पर आए और गाली-गलौज की। हालांकि, उसी दिन दायर सिविल सूट में शिकायतकर्ता ने ऐसी किसी घटना का उल्लेख नहीं किया। कोर्ट ने कहा कि दीवानी मुकदमे में दिसंबर 2021 तक की घटनाओं का जिक्र है, लेकिन 21 जनवरी का कोई उल्लेख नहीं है, जो एफआईआर की कहानी को “अविश्वसनीय” बनाता है।
- कब्जे का प्रश्न: कोर्ट ने नोट किया कि अपीलकर्ता के पास 2020 का सेल डीड (Sale Deed) है। इसलिए, एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(g) के तहत “गलत तरीके से बेदखल” (Wrongful dispossession) करने का अपराध नहीं बनता है।
- जातिसूचक अपमान: कोर्ट ने धारा 3(1)(s) के तहत अपराध को भी खारिज कर दिया। पीठ ने कहा, “एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(s) के तहत कोई अपराध नहीं बनता क्योंकि ऐसा कोई आरोप नहीं है कि जातिसूचक शब्द ‘सार्वजनिक दृष्टि’ (Public View) के भीतर किसी स्थान पर कहे गए थे या वहां जनता का कोई सदस्य मौजूद था।”
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए, हम यह पाते हैं कि एफआईआर कानून की प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग है।” कोर्ट ने कहा कि उसी दिन दायर मुकदमे के स्पष्ट बयानों को देखते हुए एफआईआर के आरोप अविश्वसनीय हैं।
परिणामस्वरूप, सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए झारखंड हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और कांके पुलिस स्टेशन में दर्ज एफआईआर संख्या 18/2022 को निरस्त कर दिया।
केस विवरण:
- केस टाइटल: अमल कुमार और अन्य बनाम झारखंड राज्य और अन्य
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर ____ ऑफ 2025 (@ SLP (Crl.) No. 5913 of 2025)
- कोरम: न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन
- साइटेशन: 2025 INSC 1402

