राजस्थान हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि नियमित विभागीय जांच (Regular Departmental Enquiry) के दौरान आरोप साबित नहीं होते हैं और गवाह अपने बयानों से मुकर जाते हैं, तो केवल प्रारंभिक जांच (Preliminary Enquiry) के निष्कर्षों के आधार पर कर्मचारी को सजा नहीं दी जा सकती।
शंकर राम बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य (एस.बी. सिविल रिट याचिका संख्या 981/2019) के मामले में सुनवाई करते हुए जस्टिस फरजंद अली की पीठ ने पुलिस कांस्टेबल की बर्खास्तगी के आदेश को रद्द कर दिया। कोर्ट ने पाया कि समीक्षा प्राधिकारी (Reviewing Authority) ने नियमित जांच के तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए प्रारंभिक जांच के बयानों पर भरोसा करके गंभीर त्रुटि की है।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता शंकर राम, जो 24 सितंबर 2008 को कांस्टेबल के पद पर नियुक्त हुए थे, को 4 मई 2015 को एक आरोप पत्र (Charge-sheet) जारी किया गया। आरोप उनके प्रशिक्षण अवधि (2009-2010) से संबंधित थे। विभाग का आरोप था कि याचिकाकर्ता ने कैंटीन ठेकेदार रिचपाल सिंह के साथ मिलकर उनके बेटे भूपेंद्र सिंह को पुलिस में नौकरी दिलाने का झांसा दिया और 1,30,000 रुपये की मांग की। यह भी आरोप था कि 50,000 रुपये की अग्रिम राशि याचिकाकर्ता और उसके चचेरे भाई के बैंक खातों में जमा कराई गई थी।
विभागीय जांच के बाद, अनुशासनिक प्राधिकारी ने 29 नवंबर 2016 को ‘दो वार्षिक वेतन वृद्धि रोकने’ (Stoppage of two annual grade increments) की लघु शास्ति (Minor Penalty) लगाई थी।
जब याचिकाकर्ता ने इसके खिलाफ अपील की, तो अपीलीय प्राधिकारी ने 29 सितंबर 2017 को सजा को अपर्याप्त मानते हुए मामले को रिमांड पर वापस भेज दिया। इसके बाद, अनुशासनिक प्राधिकारी ने 14 नवंबर 2017 को सजा बढ़ाकर ‘चार वार्षिक वेतन वृद्धि रोकने’ का आदेश दिया।
मामला यहीं नहीं रुका। पुलिस महानिरीक्षक (IGP), जोधपुर रेंज ने समीक्षा प्राधिकारी (Reviewing Authority) के रूप में राजस्थान सिविल सेवा (सीसीए) नियम के नियम 32 के तहत स्वत: संज्ञान (Suo Motu) लेते हुए कारण बताओ नोटिस जारी किया। अंततः 15 मई 2018 को समीक्षा प्राधिकारी ने पिछले सभी आदेशों को रद्द करते हुए याचिकाकर्ता को सेवा से बर्खास्त (Dismissal from service) कर दिया।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता का पक्ष: याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता विवेक फिरोदा और जयराम सारण ने तर्क दिया कि बर्खास्तगी का आदेश मनमाना और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने बताया कि नियमित विभागीय जांच के दौरान मुख्य गवाह—शिकायतकर्ता रिचपाल सिंह और उनके बेटे भूपेंद्र सिंह—अपने बयानों से मुकर गए (Hostile) थे। गवाहों ने जांच में कहा कि 50,000 रुपये का लेन-देन केवल घरेलू कार्यों के लिए एक “मित्रवत ऋण” था जिसे चुका दिया गया था, और उन्होंने नौकरी दिलाने के किसी भी वादे से इनकार किया।
इसके अलावा, इसी मामले में दर्ज आपराधिक मुकदमे (एफआईआर संख्या 276/2014) में पुलिस ने जांच के बाद मामले को दीवानी प्रकृति (Civil Nature) का मानते हुए अंतिम रिपोर्ट (FR) लगा दी थी, जिसे न्यायिक मजिस्ट्रेट ने स्वीकार भी कर लिया था।
सरकार का पक्ष: राज्य की ओर से एएजी राज सिंह भाटी ने बर्खास्तगी का बचाव करते हुए कहा कि पुलिस जैसे अनुशासित बल के सदस्यों से उच्च स्तर की ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है। उन्होंने तर्क दिया कि गवाहों का मुकर जाना या पैसे वापस कर देना कदाचार के दाग को नहीं धो सकता। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि विभागीय जांच में सबूतों का मानक “संभावनाओं की प्रबलता” (Preponderance of Probabilities) होता है, न कि “संदेह से परे साबित करना”।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
जस्टिस फरजंद अली ने समीक्षा प्राधिकारी द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया की कड़ी आलोचना की। कोर्ट ने कहा कि प्रारंभिक जांच केवल यह तय करने के लिए होती है कि मामला विभागीय कार्रवाई के लायक है या नहीं।
प्रारंभिक जांच बनाम नियमित जांच: कोर्ट ने व्यवस्था दी कि:
“सेवा न्यायशास्त्र का यह स्थापित सिद्धांत है कि एक बार औपचारिक जांच शुरू हो जाने के बाद, अभियोजन पक्ष को नियमित कार्यवाही के दौरान कानूनी रूप से स्वीकार्य साक्ष्य के माध्यम से आरोपों को साबित करना होता है।”
कोर्ट ने कहा कि जब नियमित जांच में गवाहों ने ही आरोपों का खंडन कर दिया, तो प्रारंभिक जांच के बयानों को आधार बनाकर सजा देना गलत है।
समीक्षा प्राधिकारी की त्रुटि: हाईकोर्ट ने पाया कि अनुशासनिक प्राधिकारी का 27 पन्नों का विस्तृत आदेश होने के बावजूद, समीक्षा प्राधिकारी ने उसे ‘बिना कारण बताया गया आदेश’ (Non-speaking order) मानकर गलती की। कोर्ट ने टिप्पणी की कि समीक्षा प्राधिकारी ने निष्पक्षता से काम नहीं लिया और पहले से निर्धारित मानसिकता के साथ सजा को अधिकतम स्तर तक बढ़ाया।
निर्णय: कोर्ट ने माना कि बर्खास्तगी की सजा “आरोपों के कमजोर तथ्यात्मक आधार” को देखते हुए अनुचित थी।
हाईकोर्ट ने निम्नलिखित निर्देश जारी किए:
- आदेश रद्द: अपीलीय प्राधिकारी (29.09.2017), समीक्षा प्राधिकारी/बर्खास्तगी (15.05.2018), और बढ़ी हुई सजा (14.11.2017) के आदेशों को रद्द कर दिया गया।
- सेवा बहाली: याचिकाकर्ता शंकर राम को “तत्काल प्रभाव से सेवा में बहाल” (Reinstated forthwith) करने का निर्देश दिया गया।
- पुनर्विचार: मामले को पुलिस महानिरीक्षक (IGP) के पास नए सिरे से समीक्षा के लिए रिमांड किया गया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्राधिकारी को केवल नियमित विभागीय जांच के रिकॉर्ड और एफआईआर की अंतिम रिपोर्ट को ही ध्यान में रखना होगा।
- बकाया वेतन: बर्खास्तगी से बहाली तक की अवधि को सेवा की निरंतरता (Continuity of Service) माना जाएगा, लेकिन पिछला वेतन (Back Wages) नई समीक्षा के परिणाम पर निर्भर करेगा।
यह कार्यवाही तीन महीने के भीतर पूरी करने का निर्देश दिया गया है।

