मद्रास हाईकोर्ट ने एक मध्यस्थता पंचाट (Arbitral Award) को बरकरार रखते हुए फैसला सुनाया है कि यदि पक्षकारों ने स्वेच्छा से पंजीकृत वसीयत (Registered Will) के तहत अपने अधिकारों को छोड़ दिया है, तो एक अपंजीकृत पारिवारिक समझौता (Unregistered Family Arrangement) भी उस वसीयत पर प्रभावी और मान्य होगा।
न्यायमूर्ति डॉ. जी. जयचंद्रन और न्यायमूर्ति मुम्मीनेनी सुधीर कुमार की खंडपीठ ने मध्यस्थता कार्यवाही की वैधता को चुनौती देने वाली अपील को खारिज कर दिया। पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के In Re Interplay फैसले का हवाला देते हुए पुष्टि की कि एक अपंजीकृत या बिना स्टाम्प वाले दस्तावेज में शामिल मध्यस्थता समझौता (Arbitration Agreement) कानूनन प्रवर्तनीय है।
अदालत ने ओ.एस.ए. (O.S.A.) संख्या 206/2020 को खारिज करते हुए एकल न्यायाधीश (Single Judge) के आदेश और एकमात्र मध्यस्थ (Sole Arbitrator) द्वारा पारित पंचाट की पुष्टि की। पीठ ने माना कि भले ही पारिवारिक समझौता पंजीकृत नहीं था, लेकिन यह सभी पक्षों पर बाध्यकारी है क्योंकि उन्होंने 1993 की पंजीकृत वसीयत के तहत अपने अधिकारों को सचेत रूप से त्याग दिया था। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह विवाद ‘राइट इन पर्सनम’ (पक्षों के बीच का अधिकार) से संबंधित था, न कि ‘राइट इन रेम’ (संपत्ति पर सर्वव्यापी अधिकार) से, इसलिए इसे मध्यस्थता के जरिए सुलझाया जा सकता था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद स्वर्गीय ए.एक्स.एल. इग्नेशियस और उनकी पत्नी, अमृथम इग्नेशियस के परिवार के बीच था। दंपति के दो बेटे, सुरेश जयकुमार इग्नेशियस (दिवंगत) और एंटो देव प्रकाश, तथा एक बेटी जयचित्रा सहाय जोसेफिन थीं।
ए.एक्स.एल. इग्नेशियस की 2005 में और उनके बेटे सुरेश की 2011 में मृत्यु के बाद, परिवार के सदस्यों ने 4 जनवरी 2012 को एक पारिवारिक समझौता (Memorandum of Family Arrangement) किया। इस समझौते के मुख्य बिंदु इस प्रकार थे:
- तूतीकोरिन स्थित अचल संपत्ति मां, अमृथम इग्नेशियस के पास जाएगी।
- चेन्नई स्थित संपत्ति को बेटी, जीवित बेटे और दिवंगत बेटे के कानूनी वारिसों के बीच समान रूप से (प्रत्येक को 1/3 हिस्सा) साझा किया जाएगा।
- सभी पक्षों ने विशेष रूप से ए.एक्स.एल. इग्नेशियस द्वारा निष्पादित किसी भी वसीयत से प्राप्त अधिकारों को छोड़ने (waive) पर सहमति व्यक्त की।
- समझौते में विवादों को मध्यस्थता (Arbitration) के माध्यम से सुलझाने का प्रावधान था।
हालाँकि, बाद में दिवंगत बेटे के कानूनी वारिसों (अपीलकर्ता) और दूसरे बेटे ने इस व्यवस्था का विरोध किया। उन्होंने ए.एक्स.एल. इग्नेशियस द्वारा 22 जनवरी 1993 को निष्पादित पंजीकृत वसीयत के आधार पर चेन्नई की संपत्ति पर विशेष अधिकार का दावा किया। उनका आरोप था कि पारिवारिक समझौते पर उनके हस्ताक्षर धोखाधड़ी और दबाव में लिए गए थे जब वे शोक में थे, और वसीयत के अस्तित्व को उनसे छिपाया गया था।
विवाद को एकमात्र मध्यस्थ, न्यायमूर्ति एम. विजयाराघवन (सेवानिवृत्त) के पास भेजा गया, जिन्होंने बेटी (दावेदार) के पक्ष में फैसला सुनाया और पारिवारिक समझौते को वैध मानते हुए विभाजन का निर्देश दिया। एकल न्यायाधीश ने इसके खिलाफ धारा 34 के तहत दायर याचिका को खारिज कर दिया, जिसके बाद अपीलकर्ताओं ने खंडपीठ का दरवाजा खटखटाया।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं (संथी सुरेश और अन्य) का तर्क:
- अस्वीकार्यता: पारिवारिक समझौता पंजीकृत नहीं था और उस पर उचित स्टाम्प ड्यूटी नहीं दी गई थी, इसलिए इसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
- अनिवार्य पंजीकरण: चूंकि दस्तावेज अचल संपत्ति का विभाजन करता है, इसलिए पंजीकरण अधिनियम की धारा 17 के तहत इसका पंजीकरण अनिवार्य था।
- वसीयत की सर्वोच्चता: 1993 की पंजीकृत वसीयत को बाद के एक अपंजीकृत समझौते द्वारा खत्म नहीं किया जा सकता।
- राइट इन रेम: विवाद अचल संपत्ति के अधिकारों से जुड़ा है जो ‘राइट इन रेम’ है, इसलिए यह मध्यस्थता योग्य नहीं है।
उत्तरदाताओं (जयचित्रा सहाय जोसेफिन और अन्य) का तर्क:
- स्वैच्छिक निष्पादन: पारिवारिक समझौता दो सप्ताह तक चले विचार-विमर्श का परिणाम था, जिससे जबरदस्ती के दावे खारिज होते हैं।
- स्पष्ट त्याग (Waiver): समझौते की धारा 9 और 10 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पक्ष वसीयत के तहत अपने अधिकारों को छोड़ने का वचन देते हैं और हस्तांतरण को औपचारिक रूप देने के लिए आवश्यक दस्तावेज निष्पादित करेंगे।
- कानूनी मिसाल: उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के In Re Interplay फैसले का हवाला देते हुए तर्क दिया कि स्टाम्प या पंजीकरण में कमी से मध्यस्थता समझौता शून्य नहीं हो जाता।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
खंडपीठ ने मध्यस्थ न्यायाधिकरण (Arbitral Tribunal) और एकल न्यायाधीश के निष्कर्षों से सहमति जताते हुए अपीलकर्ताओं की दलीलों को खारिज कर दिया।
1. अधिकार त्याग की वैधता और वसीयत का ज्ञान अदालत ने पाया कि ट्रिब्यूनल ने तथ्यात्मक रूप से यह निर्धारित किया था कि पक्षों ने 1993 की वसीयत की पूरी जानकारी होने के बावजूद स्वेच्छा से पारिवारिक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। पीठ ने टिप्पणी की:
“यदि वसीयत के कुछ लाभार्थियों को इसके अस्तित्व के बारे में पता है और बाकी को नहीं, और वे अधिकारों को छोड़ने के लिए सहमत होते हैं, तो इसे धोखाधड़ी माना जा सकता है… अन्यथा, जब सभी संबंधित पक्ष वैध सहमति के साथ अधिकारों का त्याग करते हैं, तो यह हमेशा मान्य होगा।”
2. पंजीकरण और स्वीकार्यता पारिवारिक समझौते के गैर-पंजीकरण की आपत्ति पर, कोर्ट ने मध्यस्थ के निष्कर्ष का हवाला दिया कि यह दस्तावेज पंजीकरण अधिनियम की धारा 17(2)(v) के अंतर्गत आता है। यह समझौता केवल भविष्य में अधिकार और शीर्षक घोषित करने के लिए एक और दस्तावेज (जैसे रिलीज डीड) प्राप्त करने का अधिकार बनाता है, न कि तत्काल शीर्षक घोषित करता है।
इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के (2024) 6 SCC 1 (In Re Interplay) फैसले पर भरोसा करते हुए, कोर्ट ने कहा कि “पृथक्करण की अवधारणा” (separability presumption) यह सुनिश्चित करती है कि भले ही मुख्य अनुबंध अस्वीकार्य हो, उसमें निहित मध्यस्थता समझौता वैध रहता है।
3. ‘राइट इन रेम’ बनाम ‘राइट इन पर्सनम’ अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि विवाद ‘राइट इन रेम’ (सर्वव्यापी अधिकार) से संबंधित था और इसलिए मध्यस्थता योग्य नहीं था। पीठ ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय पारिवारिक समझौते के तहत पक्षों के बीच के आपसी विवाद (inter se dispute) से संबंधित था।
“यह निर्णय पक्षों के बीच के विवाद के संबंध में है और केवल ‘राइट इन पर्सनम’ की घोषणा है, न कि ‘राइट इन रेम’ की। यह पंचाट किसी तीसरे पक्ष के खिलाफ नहीं है, जिसके पास संपत्ति में बेहतर शीर्षक या अधिकार हो सकते हैं।”
निर्णय
मद्रास हाईकोर्ट ने O.S.A.No. 206 of 2020 को खारिज कर दिया और एकल न्यायाधीश के आदेश तथा मध्यस्थ द्वारा पारित पंचाट की पुष्टि की।
पीठ ने निष्कर्ष निकाला:
“पक्षकारों ने विवाद को मध्यस्थ के पास भेजने के लिए दस्तावेज पर अपने हस्ताक्षर किए हैं… इसलिए यह दलील कि पारिवारिक समझौता पंजीकरण के अभाव में अप्रवर्तनीय और अवैध है, टिकने योग्य नहीं है।”
अदालत ने निर्देश दिया कि कानून के अनुसार पंचाट (Award) का निष्पादन किया जाए।

