सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट (नागपुर बेंच) के एक आदेश को रद्द करते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित बेदखली (Eviction) की डिक्री को बहाल कर दिया है। जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस जॉयमाला बागची की पीठ ने स्पष्ट किया कि वकील द्वारा कोर्ट में ‘नो इंस्ट्रक्शन’ (निर्देश नहीं मिल रहे) का पर्सिस (लिखित मेमो) देना और औपचारिक रूप से ‘वकालतनामा वापस लेने’ (Withdrawal of Vakalatnama) की अर्जी देना, दोनों अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं। कोर्ट ने कहा कि वकालतनामा वापस लेने की सख्त प्रक्रिया को ‘नो इंस्ट्रक्शन’ के मामलों में लागू नहीं किया जा सकता, खासकर तब जब वादी जानबूझकर अदालती कार्यवाही से बच रहा हो।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि हाईकोर्ट ने अनुच्छेद 227 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction) का उल्लंघन किया है, क्योंकि अपीलीय अदालत ने मामले में पहले ही एक विस्तृत और तर्कसंगत आदेश पारित किया था।
क्या था कानूनी मुद्दा?
इस मामले में मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या ट्रायल कोर्ट का फैसला सही था, जिसने प्रतिवादियों (Defendants) को नया नोटिस जारी किए बिना ही मामले का निपटारा कर दिया, जबकि उनके वकील ने ‘नो इंस्ट्रक्शन’ पर्सिस (Exhibit-42) दाखिल कर दिया था।
हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि वकालतनामा वापस लेने की निर्धारित प्रक्रिया (जैसे कि 7 दिन का अग्रिम नोटिस) का पालन नहीं किया गया, जिससे प्रतिवादियों को अपना पक्ष रखने का उचित अवसर नहीं मिला। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि वकील ने वकालतनामा वापस लेने की मांग नहीं की थी, बल्कि केवल यह बताया था कि उन्हें मुवक्किल से निर्देश नहीं मिल रहे हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता, श्री दिगंत ने महाराष्ट्र रेंट कंट्रोल एक्ट, 1999 की धारा 16(1)(g) और (n) के तहत वाद संपत्ति का कब्जा पाने के लिए सिविल सूट (No. 85 of 2014) दायर किया था।
शुरुआत में, प्रतिवादियों के कोर्ट में उपस्थित न होने के कारण मुकदमा एकतरफा (ex-parte) चला। बाद में, प्रतिवादियों ने एकतरफा आदेश को वापस लेने की अर्जी दी, जिसे स्वीकार कर लिया गया और उन्होंने अपना लिखित बयान दर्ज कराया।
मुकदमे की कार्यवाही के दौरान, प्रतिवादियों के वकील ने एक पर्सिस (Exhibit-42) प्रस्तुत किया, जिसमें कहा गया कि “पत्र भेजने के बावजूद उनके मुवक्किल उन्हें कोई निर्देश (Instructions) नहीं दे रहे हैं।” इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने कार्यवाही आगे बढ़ाई, वादी के सबूत दर्ज किए और 4 मार्च 2015 को बेदखली की डिक्री पारित कर दी।
प्रतिवादियों ने इस डिक्री को अपीलीय अदालत में चुनौती दी, लेकिन 16 जून 2021 को उनकी अपील खारिज कर दी गई। इसके बाद उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने 30 जनवरी 2023 को उनकी याचिका स्वीकार की और मामले को दोबारा सुनवाई के लिए स्मॉल कॉज कोर्ट (Small Causes Court) को रिमांड कर दिया।
पक्षों की दलीलें
प्रतिवादी (ट्रायल कोर्ट के समक्ष): हाईकोर्ट में प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि उन्हें अपना पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला। उनका कहना था कि जब उनके वकील ने निर्देश न मिलने का पर्सिस दिया, तो कोर्ट को उन्हें दूसरा वकील नियुक्त करने के लिए नोटिस भेजना चाहिए था। उन्होंने ‘सिविल मैनुअल’ के क्लॉज 660(4) और बॉम्बे हाईकोर्ट अपीलेट साइड रूल्स, 1960 के नियम 8(4) का हवाला दिया, जो वकालतनामा वापस लेने के लिए 7 दिनों के अग्रिम नोटिस की बात करता है।
अपीलकर्ता (वादी): अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि पर्सिस दाखिल होने और फैसला आने के बीच तीन महीने से अधिक का समय था, लेकिन प्रतिवादियों ने कार्यवाही में भाग लेने का कोई प्रयास नहीं किया। यह भी कहा गया कि वकील ने वकालतनामा वापस नहीं लिया था, बल्कि केवल ‘नो इंस्ट्रक्शन’ की जानकारी दी थी। इसके अलावा, प्रतिवादियों ने कभी यह दावा नहीं किया कि उन्हें उनके वकील द्वारा भेजा गया पत्र नहीं मिला, जिससे यह स्पष्ट होता है कि गलती मुवक्किल की थी, न कि वकील की।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
अनुच्छेद 227 का दायरा: पीठ ने राधेश्याम एवं अन्य बनाम छवि नाथ एवं अन्य (2015) के फैसले का हवाला देते हुए दोहराया कि सिविल कोर्ट के न्यायिक आदेशों को अनुच्छेद 226 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती, बल्कि अनुच्छेद 227 के तहत उनकी समीक्षा की जा सकती है। जस्टिस मिश्रा और जस्टिस बागची ने कहा कि अनुच्छेद 227 की शक्ति का प्रयोग केवल गंभीर अन्याय के मामलों में ही किया जाना चाहिए, जैसे कि जब कोई अदालत अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर काम करे या अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में विफल रहे।
‘नो इंस्ट्रक्शन’ पर्सिस और वकालतनामा वापसी में अंतर: सुप्रीम कोर्ट ने अपीलीय अदालत के निष्कर्षों की जांच की और पाया कि अपीलीय अदालत ने इस मुद्दे पर विस्तार से विचार किया था। कोर्ट ने कहा कि पर्सिस (Exhibit-42) में कहीं भी वकालतनामा वापस लेने की बात नहीं कही गई थी।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा:
“हाईकोर्ट ने बिना किसी औचित्य के वकालतनामा वापस लेने की प्रक्रिया पर विचार किया, जबकि न तो ट्रायल कोर्ट ने वकालतनामा वापस लेने की अनुमति दी थी और न ही पर्सिस में ऐसी कोई प्रार्थना की गई थी। इन परिस्थितियों में, हाईकोर्ट की पूरी कवायद गलत थी।”
प्रतिवादियों का आचरण: सुप्रीम कोर्ट ने अपीलीय अदालत के इस विचार का समर्थन किया कि प्रतिवादी अपने वकील द्वारा भेजे गए नोटिस की प्राप्ति को लेकर “टालमटोल” कर रहे थे। अपीलीय अदालत ने जनरल क्लॉज एक्ट की धारा 27 के तहत यह माना था कि वकील द्वारा RPAD (पंजीकृत डाक) से भेजा गया नोटिस मिल गया होगा।
कोर्ट ने कहा:
“अपीलकर्ता (प्रतिवादी) की लापरवाही और उदासीन रवैया बिल्कुल स्पष्ट है, जब उन्होंने वकील श्री एस.एस. सितानी द्वारा जारी पत्र की प्राप्ति या अप्राप्ति के बारे में कोई भी बयान देने से इनकार कर दिया।”
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हाईकोर्ट ने एक सुविचारित और तर्कसंगत अपीलीय आदेश में हस्तक्षेप करके अनुच्छेद 227 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया है।
कोर्ट ने आदेश दिया:
“तदनुसार अपील स्वीकार की जाती है। हाईकोर्ट द्वारा पारित 30.01.2023 का आदेश रद्द किया जाता है। रिट याचिका संख्या 4227/2021 खारिज मानी जाएगी।”
परिणामस्वरूप, ट्रायल कोर्ट का आदेश और अपीलीय अदालत द्वारा उसकी पुष्टि को बहाल कर दिया गया।
केस विवरण:
- केस टाइटल: श्री दिगंत बनाम मेसर्स पी.डी.टी. ट्रेडिंग कंपनी व अन्य
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 13801/2025 (SLP (C) No. 5813/2023 से उद्भूत)
- कोरम: जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस जॉयमाला बागची
- साइटेशन: 2025 INSC 1352




