दिल्ली हाईकोर्ट ने दो नाबालिग बच्चों की अंतरिम कस्टडी की मांग करने वाले एक पिता की अपील को खारिज कर दिया है और फैमिली कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा है, जिसमें मां को कस्टडी दी गई थी। न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि वैवाहिक घर से बच्चों को एकतरफा रूप से हटा ले जाने का पिता का कृत्य उसे कस्टडी जारी रखने का कोई “अनुमानित अधिकार” (Presumptive Right) नहीं देता है, और न ही यह मां की प्राथमिक देखभालकर्ता (Primary Caregiver) के रूप में लंबी भूमिका को धूमिल कर सकता है। कोर्ट ने दोहराया कि कस्टडी के मामलों में, “नाबालिग बच्चे का कल्याण ही नियंत्रक और सर्वोपरि विचार है,” जो माता-पिता के कानूनी अधिकारों से ऊपर है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह अपील गौतम मेहरा (अपीलकर्ता/पिता) और सोनिया मेहरा (प्रतिवादी/मां) के बीच एक वैवाहिक विवाद से उत्पन्न हुई थी, जिनका विवाह 3 मार्च 2009 को हुआ था। दंपति के दो बच्चे हैं: 2010 में जन्मी एक बेटी और 2016 में जन्मा एक बेटा। परिवार शुरू में नई दिल्ली स्थित वैवाहिक घर में एक साथ रहता था।
वर्ष 2023 के आसपास, वैवाहिक कलह सामने आई, जिसके बाद अपीलकर्ता ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत विवाह के विघटन के लिए याचिका दायर की। इन कार्यवाहियों के लंबित रहने के दौरान, अपीलकर्ता वैवाहिक घर से गुरुग्राम के एक अपार्टमेंट में शिफ्ट हो गए और दोनों नाबालिग बच्चों को अपने साथ ले गए।
प्रतिवादी-मां ने अंतरिम कस्टडी की मांग करते हुए आवेदन दायर किए और आरोप लगाया कि पिता का यह कृत्य एकतरफा था और इसका उद्देश्य बच्चों को उनसे अलग करना था। इसके विपरीत, अपीलकर्ता ने दावा किया कि वैवाहिक घर में तनाव के कारण यह कदम उठाना आवश्यक था।
7 अगस्त, 2024 को, फैमिली कोर्ट ने एक विस्तृत आदेश पारित किया, जिसमें निर्देश दिया गया कि दोनों बच्चों की अंतरिम कस्टडी प्रतिवादी-मां को सौंपी जाए, साथ ही अपीलकर्ता को ‘विजीटेशन राइट्स’ (मुलाकात का अधिकार) दिए गए। फैमिली कोर्ट ने पाया कि बच्चे जन्म से ही माता-पिता दोनों के साथ संयुक्त रूप से रह रहे थे और ऐसा कोई विश्वसनीय सबूत नहीं था जो यह बताए कि मां बच्चों की देखभाल के लिए अयोग्य है।
इस आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ता (पिता) की दलीलें: अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि वह 2023 के उत्तरार्ध से बच्चों की प्राथमिक देखभाल कर रहे हैं। उन्होंने दावा किया कि बच्चे उनकी देखरेख में गुरुग्राम में शैक्षणिक और सामाजिक रूप से स्थापित हैं। उनके वकील ने दलील दी कि फैमिली कोर्ट का “कस्टडी के अचानक स्थानांतरण” का आदेश बच्चों की दिनचर्या को बाधित करता है और इसमें क्रमिक बदलाव (gradual transition) सुनिश्चित नहीं किया गया।
अपीलकर्ता ने प्रतिवादी पर “विवाहेतर संबंधों” का आरोप लगाया और स्क्रीनशॉट व चैट ट्रांसक्रिप्ट का हवाला देते हुए दावा किया कि उनका आचरण एक माता-पिता के रूप में अशोभनीय था। उन्होंने प्रतिवादी पर “अनियमित और असंवेदनशील व्यवहार” का आरोप लगाया और कहा कि अपील के लंबित रहने के दौरान उन्होंने बेटी को अपने साथ रहने की इच्छा व्यक्त करने के लिए “हेरफेर” (manipulate) किया है।
प्रतिवादी (मां) की दलीलें: प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वह बच्चों के जन्म से ही उनकी प्राथमिक देखभालकर्ता रही हैं। उन्होंने अपीलकर्ता द्वारा बच्चों को ले जाने को एकतरफा कृत्य बताया जिसका उद्देश्य कोर्ट के समक्ष एक fait accompli (संपन्न तथ्य) बनाना था।
विवाहेतर संबंधों के आरोपों के संबंध में, उनके वकील ने कहा कि वे “पूरी तरह से निराधार, काल्पनिक और केवल प्रतिवादी के चरित्र को खराब करने के इरादे से लगाए गए हैं।” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि फैमिली कोर्ट और हाईकोर्ट ने बच्चों के साथ बातचीत की थी, और बड़ी बेटी ने स्पष्ट और स्वेच्छा से उनके साथ रहने की प्राथमिकता व्यक्त की थी।
कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ
खंडपीठ ने अपने parens patriae (माता-पिता के समान संरक्षक) अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए मुख्य रूप से बच्चों के कल्याण पर ध्यान केंद्रित किया।
1. एकतरफा कस्टडी पर: कोर्ट ने 2023 से देखभाल के आधार पर कस्टडी के अपीलकर्ता के दावे को खारिज कर दिया। पीठ ने कहा:
“इस तरह की स्व-निर्मित, विशेष कस्टडी प्रतिवादी की बच्चों की प्राथमिक देखभालकर्ता के रूप में लंबे समय से चली आ रही भूमिका को ग्रहण नहीं लगा सकती। फैमिली कोर्ट ने सही माना कि एक संक्षिप्त, एकतरफा व्यवस्था अपीलकर्ता को कस्टडी जारी रखने का कोई अनुमानित अधिकार नहीं दे सकती।”
2. कदाचार के आरोपों पर: कोर्ट ने प्रतिवादी के विवाहेतर संबंधों के आरोपों को अप्रामाणिक पाया। फैसले में कहा गया:
“कस्टडी का निर्णय नैतिक आचरण के अप्रामाणिक आरोपों पर नहीं हो सकता… इस प्रमाण के अभाव में कि कथित व्यवहार ने नाबालिग बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, यह कोर्ट केवल अनुमान पर आगे नहीं बढ़ सकता।”
3. वित्तीय स्थिति बनाम भावनात्मक कल्याण: अपीलकर्ता द्वारा प्रदान किए जा रहे आरामदायक माहौल के तर्क को संबोधित करते हुए, कोर्ट ने कहा:
“बच्चे के कल्याण को केवल विलासिता या समृद्धि के संदर्भ में नहीं मापा जा सकता। एक निर्माणाधीन उम्र में, मातृ देखभाल से जुड़ा स्नेह, भावनात्मक पोषण और अपनत्व की भावना अक्सर बच्चे के संतुलित विकास के लिए अपरिहार्य होती है।”
4. अपीलकर्ता का आचरण: कोर्ट ने अपीलकर्ता के आचरण पर प्रतिकूल टिप्पणी की, विशेष रूप से मार्च 2024 की एक घटना पर प्रकाश डाला जहां वह मां को मुलाक़ात का अधिकार देने वाले कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करते हुए बच्चों को दुबई ले गए थे। पीठ ने टिप्पणी की:
“न्यायिक आदेशों की इस तरह की अवहेलना… एक संरक्षक माता-पिता (custodial parent) के रूप में अपीलकर्ता की जिम्मेदारी की भावना में विश्वास नहीं जगाती है।”
5. बच्चे की प्राथमिकता: गार्जियंस एंड वार्ड्स एक्ट, 1890 की धारा 17(3) का हवाला देते हुए, कोर्ट ने नोट किया कि बेटी, जो एक संवेदनशील उम्र की है, “परिपक्व, स्पष्टवादी और प्रतिवादी के साथ रहने की अपनी प्राथमिकता में स्पष्ट थी।” कोर्ट ने पाया कि यह प्राथमिकता वास्तविक थी और किसी के प्रभाव में नहीं थी।
निर्णय
दिल्ली हाईकोर्ट ने अपील को खारिज कर दिया और पाया कि फैमिली कोर्ट के आदेश में कोई कमी नहीं है। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि प्रतिवादी, प्राकृतिक अभिभावक होने के नाते, भावनात्मक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए बेहतर स्थिति में है।
मुख्य निर्देश:
- अपील खारिज कर दी गई।
- वर्तमान में लागू अंतरिम व्यवस्था 08 सप्ताह की अवधि के लिए जारी रहेगी ताकि बदलाव (transition) सुगम हो सके।
- फैमिली कोर्ट से अनुरोध किया गया कि वह बच्चों के समायोजन की निगरानी करे और भाई-बहन के बंधन (sibling bonds) के संरक्षण को सुनिश्चित करे, क्योंकि बेटा वर्तमान में पिता के पास है जबकि बेटी मां के साथ है।
अंत में पीठ ने कहा:
“आक्षेपित आदेश (Impugned Order) एक संतुलित, कल्याण-केंद्रित और कानूनी रूप से ठोस निर्धारण को दर्शाता है, जिसमें अपीलीय अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है।”
केस विवरण:
- केस का शीर्षक: गौतम मेहरा बनाम सोनिया मेहरा
- केस नंबर: MAT.APP.(F.C.) 255/2024
- पीठ: न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर
- फैसले की तारीख: 18 नवंबर, 2025




