इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने 2008 के एक हत्या के मामले में दोषी ठहराए गए, और आईआईटी (IIT) कानपुर व आईआईएम (IIM) लखनऊ से स्नातक, राहुल वर्मा की आजीवन कारावास की सजा को निलंबित कर दिया है। जस्टिस राजेश सिंह चौहान और जस्टिस अवधेश कुमार चौधरी की खंडपीठ ने यह आदेश, अपील के लंबित रहने तक, अभियोजन पक्ष के मामले में ‘प्रथम दृष्टया’ कमजोरियों के आधार पर दिया। कोर्ट ने पाया कि यह पूरा मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों और ‘लास्ट सीन थ्योरी’ पर आधारित था, जिसमें स्पष्ट कमियां थीं।
मामले की पृष्ठभूमि:
अपीलकर्ता राहुल वर्मा ने विशेष न्यायाधीश (सीबीआई), कोर्ट नंबर 2, लखनऊ द्वारा पारित 16.05.2024 और 22.05.2024 के फैसले के खिलाफ क्रिमिनल अपील (संख्या 1790 ऑफ 2024) दायर की थी। निचली अदालत ने वर्मा को सेशंस ट्रायल नंबर 1900385 ऑफ 2012 (संबंधित क्राइम नंबर आरसी 14(एस) ऑफ 2010) में भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.) की धारा 302 (हत्या) और 201 (सबूतों को गायब करना) के तहत दोषी ठहराते हुए, धारा 302 के तहत आजीवन कारावास की अधिकतम सजा सुनाई थी। हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने उन्हें धारा 364 (हत्या के इरादे से अपहरण) के आरोप से बरी कर दिया था।
यह आदेश क्रिमिनल मिस्क. बेल एप्लीकेशन (संख्या 7 ऑफ 2024) पर पारित किया गया, जिसे हाईकोर्ट ने गुण-दोष के आधार पर सुनी जाने वाली पहली जमानत अर्जी माना, क्योंकि पिछली अर्जी को अल्पकालिक जमानत के रूप में निस्तारित किया गया था।
अपीलकर्ता (राहुल वर्मा) की दलीलें:
अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री नंदित श्रीवास्तव और श्री रिशद मुर्तजा पेश हुए। उनकी प्रमुख दलीलें इस प्रकार थीं:
- आईआईटी-आईआईएम स्नातक और एनटीपीसी के कर्मचारी अपीलकर्ता को गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है।
- अभियोजन पक्ष का पूरा मामला “अविश्वसनीय परिस्थितिजन्य साक्ष्यों और ‘लास्ट सीन थ्योरी'” पर आधारित था, जिसमें कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह या चिकित्सीय साक्ष्य नहीं था।
- उन्होंने शरद बर्डीचंद शारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए तर्क दिया कि “परिस्थितियों की श्रृंखला… स्पष्ट रूप से गायब है और घटनाओं की श्रृंखला अधूरी है।”
- पूरा मामला “एक अविश्वसनीय गवाह, विवेक कुमार त्रिवेदी (P.W.-19)” के “संदिग्ध सिद्धांत” के इर्द-गिर्द घूमता है, जो ‘लास्ट सीन थ्योरी’ का एकमात्र गवाह था।
- वकीलों ने अभियोजन पक्ष की ओर से हुई घातक देरी को उजागर किया: मृतक आदेश बाजपेयी 10.08.2008 से लापता थे; P.W.-19 ने 14.08.2008 को माता-पिता को सूचित किया; एफ.आई.आर. 20.08.2008 को दर्ज की गई; और अपीलकर्ता को फंसाने वाला हलफनामा P.W.-19 द्वारा 17.12.2009 को, यानी एक साल से अधिक समय बाद दिया गया।
- यह भी प्रस्तुत किया गया कि P.W.-19 के कहने के बावजूद कि वह पीड़ित से मिलने वाले व्यक्ति को पहचान सकता है, पुलिस द्वारा ‘शिनाख्त परेड’ (Test Identification Parade) नहीं कराई गई।
- आईआईटी कानपुर कैंपस से बरामद कंकाल के अवशेषों की पहचान मृतक के रूप में साबित नहीं हुई, और न ही अभियोजन पक्ष कोई मकसद स्थापित कर पाया।
- अपीलकर्ता को धारा 364 (अपहरण) से बरी किए जाने ने “मामले के पूरे आधार” को नष्ट कर दिया है।
प्रतिवादी (सी.बी.आई.) की दलीलें:
सी.बी.आई. की ओर से पेश हुए वकील श्री अनुराग कुमार सिंह ने सजा के निलंबन का पुरजोर विरोध किया:
- अपीलकर्ता ने एक युवा फैशन डिजाइनर, आदेश बाजपेयी की “जघन्य हत्या” का अपराध किया है।
- पीड़ित 10.08.2008 को लापता हो गया था, और 23.08.2008 को आईआईटी कानपुर कैंपस से कंकाल के अवशेष बरामद हुए थे।
- सी.बी.आई. ने आरोप लगाया कि पीड़ित और अपीलकर्ता दोनों “‘गे’ समुदाय” से थे और “GuysNmen” नामक वेबसाइट के माध्यम से एक-दूसरे को जानते थे, और 10.08.2008 की रात को संपर्क में थे।
- अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि 08.04.2011 की विशेषज्ञ रिपोर्ट के अनुसार, वैज्ञानिक साक्ष्यों ने यह साबित कर दिया था कि मानव खोपड़ी और मृत्यु-पूर्व की तस्वीरें “एक ही व्यक्ति की होने की संभावना” है, जिसकी पहचान आदेश बाजपेयी के रूप में की गई।
- सी.बी.आई. ने कहा कि ‘लास्ट सीन थ्योरी’ और गवाहों के बयान निचली अदालत में “अडिग और निर्विवाद” रहे।
हाईकोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियां:
हाईकोर्ट ने सबसे पहले ट्रायल-पूर्व जमानत (धारा 439 Cr.P.C.) और दोषसिद्धि-पश्चात सजा निलंबन (धारा 389 Cr.P.C.) के बीच के अंतर को स्पष्ट किया। कोर्ट ने कहा कि दोषसिद्धि के बाद, “निर्दोषता की उपधारणा… हवा में विलीन हो जाती है।”
ओमप्रकाश साहनी बनाम जय शंकर चौधरी (2023) 6 SCC 123 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए, बेंच ने पुष्टि की कि हत्या जैसे गंभीर मामले में सजा का निलंबन केवल “असाधारण मामलों” में ही किया जा सकता है, और इसके लिए यह आकलन करना आवश्यक है कि क्या दोषी के “बरी होने की उचित संभावना” है, जो “रिकॉर्ड पर मौजूद किसी स्पष्ट या घोर” तथ्य पर आधारित हो।
हाईकोर्ट ने तब ट्रायल कोर्ट द्वारा तय किए गए दो प्राथमिक मुद्दों का प्रथम दृष्टया (prima facie) आकलन किया:
- बरामद हड्डियों की पहचान पर: हाईकोर्ट ने निचली अदालत के निष्कर्ष में “एक स्पष्ट खामी” पाई। कोर्ट ने P.W.-29 (नीरज राय) की गवाही का उल्लेख किया, जिसने कहा था कि हड्डियां “‘डिग्रेड’ (degrade)” हो जाने के कारण उसे पर्याप्त डीएनए नहीं मिला, और यद्यपि MTDNA विश्लेषण मृतक की मां से मेल खाता था, P.W.-29 ने क्रॉस-परीक्षा में स्वीकार किया कि MTDNA को “निर्णायक सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता” और यह केवल “सहायक उद्देश्य” के लिए था। इसके अतिरिक्त, P.W.-32 (डॉ. संजीव) ने कहा था कि “मैंडिबल” (निचला जबड़ा) न होने के कारण स्कल सुपरइम्पोजिंग तकनीक “सटीकता से लागू नहीं” की जा सकती। हाईकोर्ट ने पाया कि निचली अदालत का निष्कर्ष “रिकॉर्ड पर लाए गए वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित नहीं” था।
- ‘लास्ट सीन’ थ्योरी पर: हाईकोर्ट ने पाया कि निचली अदालत का तर्क “अभियुक्त के खिलाफ सबूतों पर चर्चा करने के बजाय, P.W.-19 को बरी करने की कोशिश” पर काफी हद तक केंद्रित था। कोर्ट ने पाया कि ‘लास्ट सीन’ थ्योरी की “किसी भी गवाह द्वारा पुष्टि नहीं” की गई और अपीलकर्ता को P.W.-19 के विलंबित हलफनामे के आधार पर फंसाया गया, जो एक ऐसा गवाह था जो “पूरी जांच के दौरान खुद संदेह के घेरे में” था।
बेंच ने कन्हैया लाल बनाम राजस्थान राज्य (2014) 4 SCC 715 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था: “सिर्फ ‘एक साथ देखे जाने’ की परिस्थिति अपने आप में और आवश्यक रूप से इस निष्कर्ष तक नहीं ले जाती कि अपराध अभियुक्त ने ही किया है। अपराध और अभियुक्त के बीच संबंध स्थापित करने के लिए कुछ और होना चाहिए।”
हाईकोर्ट ने यह कहते हुए अपना प्रथम दृष्टया विश्लेषण समाप्त किया, “मकसद का साक्ष्य हमें एक प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में संतुष्ट नहीं करता है।” कोर्ट ने आगे कहा: “प्रथम दृष्टया, यह कोर्ट पाती है कि अपीलकर्ता को केवल इसलिए संदेह के घेरे में लिया गया क्योंकि वह एक विशेष यौन रुझान वाले समुदाय का सदस्य है और अभियोजन पक्ष ने उस संदेह को एक ऐसी श्रृंखला बुनकर वास्तविकता में बदलने की कोशिश की है जो रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों से असंगत है, और जिसमें स्पष्ट रूप से ढीले सिरे हैं।”
निर्णय:
अपीलकर्ता की दलीलों में योग्यता पाते हुए, हाईकोर्ट ने जमानत अर्जी स्वीकार कर ली और 22.05.2024 के सजा के आदेश को अपील के अंतिम निस्तारण तक निलंबित कर दिया।
अपीलकर्ता, राहुल वर्मा, को एक व्यक्तिगत बांड और दो जमानती राशि प्रस्तुत करने पर रिहा करने का आदेश दिया गया, जो निम्नलिखित शर्तों के अधीन होगा: (i) निचली अदालत द्वारा लगाया गया पूरा जुर्माना रिहाई के 30 दिनों के भीतर जमा करना होगा। (ii) वह अपील के शीघ्र निस्तारण में सहयोग करेगा। (iii) वह जमानत पर रिहा होने के बाद किसी भी आपराधिक गतिविधि में लिप्त नहीं होगा। (iv) वह अपना पासपोर्ट निचली अदालत में जमा करेगा और इस कोर्ट की पूर्व अनुमति के बिना देश नहीं छोड़ेगा।
हाईकोर्ट ने अपील को अंतिम सुनवाई के लिए दिसंबर 2025 के तीसरे सप्ताह में सूचीबद्ध किया है।




