सुप्रीम कोर्ट में ‘घोस्ट लिटिगेंट’ मामला और उलझा, तीसरे वकील ने भी पल्ला झाड़ा; बार संघों ने पुलिस जांच की मांग की

सुप्रीम कोर्ट में एक ‘घोस्ट लिटिगेंट’ (फर्जी प्रतिवादी) के ज़रिए कथित रूप से फर्जी समझौते के आधार पर फैसला हासिल करने के मामले में मंगलवार को नया मोड़ आया, जब उस तीसरे वकील ने भी कोर्ट में स्पष्ट कर दिया कि उसका इस केस से कोई लेना-देना नहीं है, बावजूद इसके उसका नाम आदेश पत्र में दर्ज था।

दरअसल, एक याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में एक ऐसे प्रतिवादी को खड़ा कर दिया, जिसने कोर्ट से कहा कि उसने जमीन विवाद में समझौता कर लिया है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2023 में मुजफ्फरपुर ट्रायल कोर्ट और पटना हाईकोर्ट द्वारा पारित आदेशों को रद्द कर दिया। लेकिन पांच महीने बाद असली प्रतिवादी कोर्ट के समक्ष पेश हुआ और बताया कि उसने न तो कोई समझौता किया, न ही किसी वकील को सुप्रीम कोर्ट में प्रतिनिधित्व के लिए अधिकृत किया।

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उस दिन के आदेश पत्र में चार वकीलों के नाम दर्ज थे, जिनमें से तीन सुप्रीम कोर्ट में पहचाने जाने वाले नाम हैं, लेकिन चौथे वकील के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी। जांच में पता चला कि वह वकील अब कानून का अभ्यास नहीं करता और न ही उसकी बेटी—जिसका नाम भी आदेश में था—को इस मामले की जानकारी थी।

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इस पृष्ठभूमि में, सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने तीसरे वकील रतन लाल को तलब किया था। न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति अतुल एस. चंदुरकर की पीठ के समक्ष पेश होकर वकील रतन लाल ने कहा, “मैंने कुछ नहीं किया है और इस केस से मेरा कोई लेना-देना नहीं है।”

अब तक तीनों वकीलों ने मामले में अपनी किसी भी भूमिका से इनकार कर दिया है, जबकि चौथे वकील का अब तक पता नहीं चल पाया है।

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इस पूरे घटनाक्रम के बीच सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने कोर्ट से मांग की कि मामले में गहराई से जांच कराई जाए। दोनों संस्थाओं ने आशंका जताई कि इस फर्जीवाड़े के पीछे कोई बाहरी व्यक्ति हो सकता है, न कि अधिवक्ता।

SCAORA के अध्यक्ष विपिन नायर ने कोर्ट में कहा, “किसी एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड (AOR) या वकील पर सीधे-सीधे दोष नहीं मढ़ा जा सकता, क्योंकि दलीलों से यह संकेत मिलते हैं कि याचिकाकर्ता द्वारा फर्जीवाड़ा किए जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए एक निष्पक्ष और गहन जांच जरूरी है।”

उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि पुलिस जांच कराए जाने के साथ-साथ दस्तावेजों की फोरेंसिक जांच कराई जाए, ताकि सच्चाई सामने आ सके।

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संक्षिप्त सुनवाई के बाद पीठ ने कहा कि वह सभी पहलुओं पर विचार कर कोई आदेश पारित करेगी।

यह मामला इस बात को लेकर गंभीर चिंता पैदा करता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट जैसी शीर्ष अदालत में भी पहचान और प्रतिनिधित्व से जुड़े दस्तावेजों के साथ इस तरह का छल संभव है। अब अदालत यह तय करेगी कि मामले में अपराधी की पहचान और न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए पुलिस जांच आवश्यक है या नहीं।

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