हाईकोर्ट ने अवमानना मामले में वकील को 6 महीने की सजा दी, तीन साल के लिए प्रैक्टिस पर रोक

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने एक आपराधिक अवमानना याचिका में सुनवाई करते हुए एक वकील को छह महीने के साधारण कारावास और ₹2,000 के जुर्माने की सजा सुनाई है। साथ ही, कोर्ट ने उसे इलाहाबाद और लखनऊ स्थित हाईकोर्ट की पीठों में तीन वर्षों तक वकालत करने और परिसर में प्रवेश करने से भी प्रतिबंधित कर दिया है।

यह आदेश न्यायमूर्ति विवेक चौधरी और न्यायमूर्ति बृज राज सिंह की खंडपीठ ने 26 मई 2025 को पारित किया। मामला CONTEMPT APPLICATION (CRIMINAL) No.1493 of 2021 से संबंधित है, जिसमें वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक पांडेय को अवमाननाकर्ता के रूप में नामित किया गया था।

पृष्ठभूमि

10 अप्रैल 2025 को न्यायालय ने अवमानना का दोष सिद्ध मानते हुए कहा था:

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“अवमाननाकर्ता को छह महीने के साधारण कारावास और ₹2000 के जुर्माने से दंडित किया जाता है। यदि वह एक माह के भीतर जुर्माना अदा नहीं करता है तो उसे एक माह का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा।”
“अवमाननाकर्ता को चार सप्ताह के भीतर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया जाता है।”
“हम इसे उपयुक्त मामला मानते हैं जिसमें अवमाननाकर्ता को तीन वर्षों तक हाईकोर्ट इलाहाबाद और लखनऊ में प्रैक्टिस करने से रोका जाना चाहिए…”

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न्यायालय ने इसके साथ ही उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय नियमावली के अध्याय XXIV नियम 11(3) के तहत कारण बताओ नोटिस भी जारी किया था।

वकील की दलीलें और न्यायालय की प्रतिक्रिया

वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक पांडेय ने 1 मई 2025 को पुनर्विचार याचिका दायर कर सजा को रद्द करने की मांग की। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि उन्हें सजा के निर्धारण पर अलग से नहीं सुना गया और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रशांत भूषण मामले में दी गई ₹1 की सजा का हवाला देते हुए समानता की मांग की।

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कोर्ट ने इन दलीलों को खारिज करते हुए कहा:

“वर्तमान मामले में अवमाननाकर्ता पूर्व में भी एक अन्य अवमानना मामले में तीन महीने की सजा और ₹25,000 के जुर्माने से दंडित हो चुके हैं, और उनके विरुद्ध छह अन्य अवमानना याचिकाएं लंबित हैं। अतः उन्हें प्रशांत भूषण मामले की तुलना में समानता नहीं दी जा सकती।”

न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि वकील ने कोर्ट में सुनवाई के दौरान अपनी शर्ट के ऊपर के दो बटन खुले रखे थे और न्यायालय द्वारा कहे जाने पर भी उन्हें बंद नहीं किया। उन्होंने इस व्यवहार के पीछे कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया।

अदालत ने उनके द्वारा प्रस्तुत किया गया माफीनामा अस्वीकार करते हुए कहा:

“यह माफीनामा बहुत विलंब से और बिना किसी सच्चे भाव के प्रस्तुत किया गया है, अतः इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।”

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अंतिम निर्णय

न्यायालय ने अपने पूर्व आदेश को बरकरार रखते हुए निर्देश दिए:

  • पुनर्विचार याचिका खारिज की जाती है।
  • अधिवक्ता को आदेश की तारीख से दो माह के भीतर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लखनऊ के समक्ष आत्मसमर्पण करना होगा।
  • ₹2,000 का जुर्माना एक माह के भीतर वरिष्ठ रजिस्ट्रार के समक्ष जमा करना होगा, अन्यथा एक माह का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा।
  • तीन वर्षों तक अधिवक्ता को इलाहाबाद और लखनऊ हाईकोर्ट में वकालत करने व परिसर में प्रवेश करने से प्रतिबंधित किया गया है, जब तक कि विशेष अनुमति न प्राप्त हो।

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