एक महत्वपूर्ण फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने रमेश ए. नायका की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया, जिसमें रिहाई की कोई संभावना नहीं होगी। नायका को अपने दो नाबालिग बच्चों की निर्मम हत्या का दोषी ठहराया गया था। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने उनकी दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन निचली अदालतों द्वारा दी गई सजा को संशोधित कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
रमेश ए. नायका, जो एक पूर्व बैंक प्रबंधक थे, को जून 2010 में अपने 10 वर्षीय बेटे भुवनराज और 3.5 वर्षीय बेटी कृतिका की जघन्य हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था। यह मामला पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया था और पारिवारिक विवाद से जुड़ा था। अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि नायका अपनी साली के रिश्ते को लेकर असंतुष्ट थे और जब उनकी पत्नी और साली ने उनकी बात नहीं मानी, तो उन्होंने बदला लेने के लिए इन हत्याओं को अंजाम दिया।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, नायका ने पहले अपनी साली सविता और सास सरस्वती की हत्या टुमकुर में की थी। इसके बाद वह मंगलुरु गए, जहां उन्होंने अपने दोनों बच्चों को घुमाने के बहाने बाहर ले जाकर एक परिचित व्यक्ति के बगीचे में बने पानी के टैंक में डुबोकर मार डाला। अपराध के बाद, उन्होंने अपनी पत्नी को आत्महत्या करने का संदेश भेजा। हालांकि, पत्नी ने अपने परिवार को सूचित किया, जिससे मामला पुलिस तक पहुंचा और नायका की गिरफ्तारी हुई।

कानूनी कार्यवाही और प्रमुख मुद्दे
ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट का निर्णय:
ट्रायल कोर्ट ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों (circumstantial evidence) के आधार पर नायका को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 के तहत दोषी ठहराया और मौत की सजा सुनाई। कर्नाटक हाईकोर्ट ने इस सजा को बरकरार रखते हुए इसे ‘दुर्लभतम से दुर्लभ’ (rarest of rare) श्रेणी का अपराध माना।
मामले के प्रमुख कानूनी मुद्दे:
- परिस्थितिजन्य साक्ष्य: अभियोजन पक्ष ने प्रत्यक्ष प्रमाण के बजाय गवाहों की गवाही, फोरेंसिक रिपोर्ट और कॉल रिकॉर्ड जैसी अप्रत्यक्ष साक्ष्यों के आधार पर नायका के दोष को साबित किया।
- मंशा (Motive): अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि नायका अपनी साली के संबंध को लेकर गुस्से में थे और अपनी पत्नी व उसके परिवार को दंडित करने के लिए अपने ही बच्चों की हत्या कर दी।
- इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता: बचाव पक्ष ने अभियोजन द्वारा प्रस्तुत एसएमएस संदेशों को चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि वे भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी का पालन नहीं करते। हालांकि, अदालत ने इन्हें सहायक साक्ष्य मानकर स्वीकार कर लिया।
- मृत्युदंड बनाम आजीवन कारावास: सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्मूल्यांकन किया कि क्या यह मामला वास्तव में ‘दुर्लभतम से दुर्लभ’ श्रेणी में आता है, जिससे मौत की सजा उचित ठहराई जा सके।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने नायका की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन मौत की सजा को बदलने के लिए निम्नलिखित शमनकारी (mitigating) कारकों को ध्यान में रखा:
- नायका का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था।
- जेल में उनके अच्छे व्यवहार और परिवार के साथ सकारात्मक संबंधों को दर्ज किया गया था।
- हिरासत में उनके आचरण से यह संकेत नहीं मिला कि वे सुधार के लायक नहीं हैं।
- मामला प्रत्यक्ष प्रमाण के बजाय परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित था।
अदालत ने टिप्पणी की: “मृत्युदंड की अपरिवर्तनीयता इसे अदालत की मामूली सी झिझक के भी पूरी तरह से असंगत बनाती है।”
इसके अलावा, अदालत ने कहा कि किसी भी अपराधी को दंडित करने से पहले उसके सुधार की संभावना पर विचार किया जाना चाहिए। कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर दी गई मौत की सजा को कम किया है। इसी सिद्धांत को लागू करते हुए, अदालत ने नायका को बिना रिहाई की संभावना के आजीवन कारावास की सजा दी।