भारत के सुप्रीम कोर्ट ने उन सिविल अपीलों को खारिज कर दिया है, जिनमें राजस्थान हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी गई थी, जिसमें आरक्षित श्रेणियों के कई उम्मीदवारों के आवेदन इस आधार पर अस्वीकार कर दिए गए थे कि वे सिविल न्यायाधीश परीक्षा, 2021 के लिए तय समयसीमा के भीतर वैध जाति या आय प्रमाणपत्र प्रस्तुत करने में असफल रहे थे।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह, और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की तीन-न्यायाधीशों वाली पीठ ने हाईकोर्ट की उस व्याख्या को सही माना जिसमें पात्रता मानदंड के अनुसार ओबीसी (गैर-क्रीमी लेयर), एमबीसी (गैर-क्रीमी लेयर) और ईडब्ल्यूएस जैसी आरक्षित श्रेणियों के प्रमाणपत्र आवेदन की अंतिम तिथि – 31 अगस्त 2021 तक वैध होने चाहिए।
पृष्ठभूमि

राजस्थान हाईकोर्ट ने 22 जुलाई 2021 को एक विज्ञापन जारी कर राजस्थान न्यायिक सेवा नियम, 2010 के तहत सिविल न्यायाधीश संवर्ग में 120 रिक्तियों के लिए आवेदन आमंत्रित किए थे। इस विज्ञापन में आरक्षित श्रेणियों के प्रमाणपत्रों की तिथि को लेकर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिया गया था।
प्रारंभिक और मुख्य परीक्षा के आयोजन के बाद, 4 अगस्त 2022 को एक सूचना जारी की गई, जिसमें कहा गया कि आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों के पास 31 अगस्त 2021 या उससे पहले जारी किए गए प्रमाणपत्र होने चाहिए। इसके चलते कई ऐसे उम्मीदवार अयोग्य ठहराए गए जिन्होंने अंक तो प्राप्त किए थे, लेकिन उनके प्रमाणपत्र बाद में जारी हुए थे।
अपीलकर्ताओं के तर्क
साक्षी अर्हा और अन्य अपीलकर्ताओं ने उक्त सूचना और हाईकोर्ट के निर्णय को चुनौती देते हुए यह तर्क दिए:
- मूल विज्ञापन में प्रमाणपत्र की तिथि को लेकर कोई कट-ऑफ नहीं बताया गया था।
- बाद में जारी की गई सूचना के माध्यम से इस प्रकार की शर्त जोड़ना मनमाना है और उनके अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- उनके प्रमाणपत्र मान्य प्रारूप में थे और उस समय के प्रचलित नियमों के अनुसार वैध थे।
- हाईकोर्ट ने अशोक कुमार सोनकर बनाम भारत सरकार मामले पर गलत तरीके से भरोसा किया, क्योंकि वह मामला अलग तथ्यों से संबंधित था।
- उन्होंने राम कुमार गिजरोया बनाम DSSSB और धीरेंद्र सिंह पालीवाल बनाम UPSC जैसे मामलों का हवाला दिया, जहां दस्तावेज़ों की कमी को आवेदन के बाद भी पूरा करने की अनुमति दी गई थी।
प्रत्युत्तर में प्रतिवादी की दलीलें
राजस्थान हाईकोर्ट ने अपने वकील के माध्यम से तर्क दिया कि:
- 9 सितंबर 2015 और 8 अगस्त 2019 को जारी राज्य सरकार के परिपत्रों के अनुसार, गैर-क्रीमी लेयर प्रमाणपत्र एक वर्ष तक वैध रहते हैं और शपथपत्र के साथ तीन वर्षों तक बढ़ाए जा सकते हैं।
- प्रमाणपत्रों की वैधता आवेदन की अंतिम तिथि तक होना आवश्यक था, जो नियमों और परिपत्रों के अनुरूप है।
- विज्ञापन में स्पष्ट किया गया था कि उम्मीदवारों को केवल उन्हीं श्रेणियों के अंतर्गत आवेदन करना चाहिए जिनके वे पात्र हैं।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“विज्ञापन में स्पष्ट रूप से आवश्यक था कि उम्मीदवार नियमों और निर्देशों के अनुसार, निर्धारित प्रारूप में वैध प्रमाणपत्र प्रस्तुत करें।”
अदालत ने यह भी माना कि:
- ओबीसी-एनसीएल और ईडब्ल्यूएस जैसी श्रेणियों में आरक्षण स्थायी नहीं होता, बल्कि यह सामाजिक और आर्थिक आधारों पर वार्षिक आकलन पर निर्भर करता है।
- राज्य सरकार द्वारा जारी परिपत्रों में प्रमाणपत्रों की वैधता अवधि और उसे बढ़ाने की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से दर्ज है।
- विज्ञापन को जब संबंधित नियमों और सरकारी परिपत्रों के साथ पढ़ा जाए, तो यह आवश्यक बनता है कि उम्मीदवारों के पास 31 अगस्त 2021 तक वैध प्रमाणपत्र होना चाहिए।
अदालत ने रेखा चतुर्वेदी बनाम राजस्थान विश्वविद्यालय, भूपिंदरपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य और दिव्या बनाम भारत सरकार जैसे मामलों पर भरोसा करते हुए दोहराया:
“यदि विज्ञापन या नियमों में विशेष दिनांक का उल्लेख नहीं हो, तो पात्रता की जांच आवेदन की अंतिम तिथि के संदर्भ में की जाती है।”
साथ ही अदालत ने राम कुमार गिजरोया के मामले को वर्तमान मामले से अलग बताया क्योंकि यहां किसी भी अपीलकर्ता ने कट-ऑफ तिथि से पहले प्रमाणपत्र के लिए आवेदन नहीं किया था और न ही किसी ने प्रमाणपत्र जारी करने में देरी का दावा किया।
निष्कर्ष
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए अपीलें खारिज कर दीं:
“हमारे समक्ष अपीलकर्ताओं के पक्ष में विधिक स्थिति नहीं है… यह अपीलें मेरिटविहीन हैं और खारिज की जानी चाहिए।”
सभी सिविल अपीलें खारिज कर दी गईं और राजस्थान हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा गया।
प्रकरण का नाम: साक्षी अर्हा बनाम राजस्थान हाईकोर्ट एवं अन्य, सिविल अपील संख्या 3957/2023, निर्णय दिनांक: 8 अप्रैल 2025।