भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है कि किसी अनुबंध में विवाद समाधान क्लॉज (clause), जो ‘मध्यस्थता’ (arbitration) शब्द का उपयोग करने के बावजूद अंततः पक्षकारों को “कानूनी अदालतों के माध्यम से उपचार” (remedies through the courts of law) खोजने की अनुमति देता है, वह मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (A&C Act) के तहत एक वैध मध्यस्थता समझौता नहीं माना जाएगा।
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने M/s अल्केमिस्ट हॉस्पिटल्स लिमिटेड द्वारा दायर एक अपील को खारिज कर दिया और पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले की पुष्टि की। कोर्ट ने माना कि उक्त क्लॉज में अंतिम रूप से बाध्यकारी होने का गुण (attribute of finality) नहीं था और यह केवल सौहार्दपूर्ण समाधान के लिए एक बहु-स्तरीय प्रक्रिया थी, न कि बाध्यकारी मध्यस्थता।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद M/s अल्केमिस्ट हॉस्पिटल्स (अपीलकर्ता) और M/s आईसीटी हेल्थ टेक्नोलॉजी सर्विसेज (प्रतिवादी) के बीच 1 नवंबर 2018 को हुए “सॉफ्टवेयर कार्यान्वयन समझौते” (Software Implementation Agreement) से उत्पन्न हुआ था। यह समझौता अस्पताल के लिए “HINAI वेब सॉफ्टवेयर” के कार्यान्वयन के लिए था।
अपीलकर्ता ने सॉफ्टवेयर में बार-बार तकनीकी विफलताओं और प्रक्रियात्मक देरी का आरोप लगाया, जिसके कारण 1 अप्रैल 2020 को सॉफ्टवेयर को वापस लेना (rollback) पड़ा।
उसी दिन, अपीलकर्ता ने समझौते के क्लॉज 8.28 को लागू किया, जिसका शीर्षक “मध्यस्थता” (Arbitration) था। पत्राचार के बाद, अपीलकर्ता ने 29 जून 2020 को A&C एक्ट की धारा 11 और 21 के तहत एक नोटिस जारी कर एकमात्र मध्यस्थ (sole arbitrator) की नियुक्ति का सुझाव दिया।
अंततः, प्रतिवादी के संचार से विवश होकर, अपीलकर्ता ने एक मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए हाईकोर्ट के समक्ष A&C एक्ट की धारा 11(6) के तहत एक आवेदन दायर किया।
समझौते का क्लॉज 8.28
विवाद के केंद्र में क्लॉज 8.28 था, जिसमें विवाद समाधान के लिए एक बहु-चरणीय प्रक्रिया निर्धारित थी:
- पहले, वरिष्ठ अधिकारियों के बीच बातचीत (negotiation)।
- यदि अनसुलझा रहता है, तो मामला मध्यस्थता (mediation) के लिए आगे बढ़ेगा।
- इसके बाद क्लॉज में कहा गया: “किसी भी विवाद… का समाधान दोनों पक्षों के संबंधित अध्यक्षों (Chairmen) से युक्त वरिष्ठ प्रबंधन के माध्यम से मध्यस्थता (arbitration) द्वारा किया जाएगा (मध्यस्थ)।”
- महत्वपूर्ण रूप से, इसका समापन इस प्रकार हुआ: “यदि मध्यस्थता के बाद पंद्रह (15) दिनों के भीतर विवाद का समाधान नहीं होता है, तो शिकायतकर्ता पक्ष अदालतों के माध्यम से उपचार की मांग करेगा।”
हाईकोर्ट की फाइंडिंग्स
हाईकोर्ट ने यह मानते हुए आवेदन खारिज कर दिया था कि क्लॉज 8.28 एक वैध मध्यस्थता समझौता नहीं था। हाईकोर्ट ने माना कि ‘मध्यस्थता’ शब्द का “ढीले-ढाले तरीके से” (loosely employed) इस्तेमाल किया गया था और असली मंशा केवल आंतरिक स्तर पर बातचीत और मध्यस्थता (mediation) की थी। कोर्ट ने कहा कि इस प्रक्रिया में अंतिमता (finality) का अभाव था, क्योंकि पक्षकार “स्पष्ट रूप से सिविल अदालतों में जाने के लिए स्वतंत्र थे।”
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट, जिसके समक्ष यह सवाल था कि “क्या क्लॉज 8.28 को एक वैध मध्यस्थता समझौता माना जा सकता है,” ने हाईकोर्ट के तर्क को बरकरार रखा।
बेंच ने A&C एक्ट की धारा 7 का हवाला देते हुए, एक मध्यस्थता समझौते के आवश्यक गुणों को निर्धारित करने के लिए स्थापित कानूनी मिसालों का संदर्भ दिया।
कोर्ट ने जगदीश चंदर बनाम रमेश चंदर (2007) मामले का हवाला देते हुए एक प्रमुख सिद्धांत को दोहराया: “केवल ‘मध्यस्थता’ या ‘मध्यस्थ’ शब्द का उपयोग… किसी क्लॉज को मध्यस्थता समझौता नहीं बना देगा,” खासकर तब जब इसमें “ऐसा कुछ भी शामिल हो जो मध्यस्थता समझौते के गुणों को कम करता हो।”
जजमेंट में कहा गया कि जहां कोई समझौता किसी पक्ष को किसी निर्णय से असंतुष्ट होने पर “राहत की मांग के लिए सिविल मुकदमा दायर करने” की अनुमति देता है, “उसे मध्यस्थता समझौता नहीं कहा जा सकता।” सुप्रीम कोर्ट ने इस मिसाल को इस मामले के लिए निर्णायक पाया और कहा, “यही स्थिति यहां पर है।”
कोर्ट का विश्लेषण क्लॉज 8.28 में दो मुख्य कमियों पर केंद्रित था:
- अंतिमता का अभाव: कोर्ट ने पाया कि क्लॉज का “अंतिम से पहला वाक्य,” जो शिकायतकर्ता पक्ष को 15 दिनों के बाद “अदालतों के माध्यम से उपचार” की अनुमति देता है, निर्णायक कारक था। कोर्ट ने कहा, “क्लॉज 8.28 के अवलोकन पर, हमारा विचार है कि ऐसा कोई संकेत नहीं है कि प्रस्तावित ‘मध्यस्थता’ अंतिम और बाध्यकारी होने वाली थी।” यह प्रावधान “मध्यस्थता के लिए एक निश्चित प्रस्तुति के बजाय आपसी सौहार्दपूर्ण समाधान के प्रयास” का सुझाव देता है।
- “मध्यस्थों” की प्रकृति: कोर्ट ने पाया कि क्लॉज के तहत नामित “मध्यस्थ” स्वयं दोनों पक्षों के संबंधित अध्यक्ष थे। कोर्ट ने इस तंत्र को “दो कंपनियों के अध्यक्षों के बीच एक आंतरिक निपटान प्रक्रिया के समान” (akin to an internal settlement process) बताया।
अपीलकर्ता ने यह भी तर्क दिया था कि प्रतिवादी ने अपने पत्राचार में मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व से इनकार नहीं किया, जो एक स्वीकृति के बराबर है। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला, “जब पहली बार में कोई मध्यस्थता समझौता हुआ ही नहीं था, इसलिए, पक्षकारों के बीच बाद का पत्राचार… मूल इरादे को विस्थापित नहीं कर सकता।”
निर्णय
अपने विश्लेषण को समाप्त करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने माना: “हमारे विचार में, समझौते का क्लॉज 8.28, उपरोक्त कारणों से, विवादों को मध्यस्थता के लिए संदर्भित करने का इरादा नहीं दर्शाता है।”
कोर्ट ने हाईकोर्ट के अंतिम फैसले और आदेश की पुष्टि की और अपील खारिज कर दी। अपीलकर्ता को “सक्षम सिविल अदालत के समक्ष कानून के अनुसार उपचार” खोजने के लिए स्वतंत्र किया गया है, साथ ही यह निर्देश भी दिया गया है कि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 14 के तहत किसी भी दावे पर संबंधित अदालत द्वारा उचित रूप से निर्णय लिया जा सकता है। पक्षकारों को अपनी लागत स्वयं वहन करने का आदेश दिया गया।




