सुप्रीम कोर्ट ने रंगा रेड्डी जिले के गुर्रामगुडा वन ब्लॉक से 102 एकड़ जमीन को बाहर करने वाले फॉरेस्ट सेटलमेंट ऑफिसर (FSO), जिला अदालत और तेलंगाना हाईकोर्ट के आदेशों को रद्द कर दिया है। शीर्ष अदालत ने तेलंगाना राज्य द्वारा दायर अपील को स्वीकार करते हुए यह स्पष्ट किया कि विवादित भूमि सरकारी संपत्ति है और दिवंगत सालार जंग-III के कानूनी वारिसों द्वारा किए गए उत्तराधिकार के दावों को खारिज कर दिया।
जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने कहा कि फॉरेस्ट सेटलमेंट ऑफिसर (FSO) ने तेलंगाना वन अधिनियम, 1967 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन किया है। पीठ ने पाया कि एक संक्षिप्त जांच (Summary Inquiry) में संपत्ति के मालिकाना हक का फैसला करना और दावे में 33 साल से अधिक की देरी को माफ करना कानूनन गलत था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद रंगा रेड्डी जिले के हयातनगर मंडल स्थित गुर्रामगुडा वन ब्लॉक के सर्वे नंबर 201/1 में 102 एकड़ भूमि से संबंधित है। राज्य सरकार का तर्क था कि 1953 में बोर्ड ऑफ रेवेन्यू द्वारा यह भूमि मृदा संरक्षण अनुसंधान केंद्र के लिए वन विभाग को हस्तांतरित कर दी गई थी। तेलंगाना वन अधिनियम, 1967 की धारा 4 के तहत इस भूमि को आरक्षित वन घोषित करने का प्रस्ताव 18 जून, 1971 को जारी किया गया था, जिसके बाद 1972 में धारा 6 के तहत उद्घोषणा (Proclamation) की गई।
उद्घोषणा के लगभग 33 साल बाद, 30 नवंबर 2005 को मीर जाफर अली खान (प्रतिवादी नंबर 1) ने FSO के समक्ष एक दावा याचिका दायर की। दावेदारों ने सालार जंग-III के माध्यम से उत्तराधिकार का अधिकार जताया और कहा कि यह भूमि “अराजी-मकता” (स्व-अर्जित निजी संपत्ति) थी, जिसे उनके पूर्वज ने 1833 ईस्वी में खरीदा था और 1954 में जागीर प्रशासन से इसे मुक्त कर दिया गया था।
शुरुआत में, FSO ने 2010 में इस दावे को खारिज कर दिया था। हालांकि, अपीलीय प्राधिकरण द्वारा मामले को रिमांड पर भेजने के बाद, FSO ने 15 अक्टूबर 2014 को एक नया आदेश पारित किया, जिसमें दावे को स्वीकार करते हुए भूमि को वन अधिसूचना से बाहर करने का निर्देश दिया गया। इस निर्णय को रंगा रेड्डी जिले के प्रधान जिला न्यायाधीश और बाद में तेलंगाना हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा था।
पक्षों की दलीलें
तेलंगाना राज्य की ओर से तर्क दिया गया कि हैदराबाद (जागीर उन्मूलन) विनियमन, 1358F के तहत जागीरों के उन्मूलन के बाद, यह भूमि पूरी तरह से राज्य में निहित हो गई थी। राज्य ने जोर दिया कि वन अधिनियम की धारा 4, 6 और 10 के तहत FSO के पास स्वामित्व और मालिकाना हक के विवादों का फैसला करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। इसके अलावा, राज्य ने यह भी कहा कि यह दावा समय सीमा (Limitation) से बाधित था और FSO 33 साल की देरी को माफ नहीं कर सकता था।
प्रतिवादियों (दावेदारों) ने तर्क दिया कि यह भूमि सालार जंग-III की निजी संपत्ति थी और सरकारी भूमि नहीं थी। उन्होंने जागीर प्रशासक के 24 अप्रैल, 1954 के पत्र और 1956 की गजट अधिसूचना का हवाला देते हुए दावा किया कि भूमि को सालार जंग एस्टेट के लिए जारी किया गया था। उनका कहना था कि चूंकि वन अधिनियम की धारा 15 के तहत अंतिम अधिसूचना जारी नहीं की गई थी, इसलिए FSO के पास दावों पर विचार करने और धारा 16 के तहत देरी को माफ करने का अधिकार था।
कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने FSO के अधिकार क्षेत्र और तेलंगाना में जागीरों और इनामों को नियंत्रित करने वाले ऐतिहासिक कानूनी ढांचे की विस्तृत जांच की।
फॉरेस्ट सेटलमेंट ऑफिसर का अधिकार क्षेत्र अदालत ने कहा कि तेलंगाना वन अधिनियम की धारा 10 के तहत जांच की प्रकृति “संक्षिप्त” (Summary) होती है। इसका उद्देश्य रास्ते या पानी के अधिकार जैसे दावों का सत्यापन करना है, न कि जटिल मालिकाना हक के विवादों का फैसला करना।
जस्टिस एस.वी.एन. भट्टी ने फैसले में लिखा:
“FSO अपने अधिकार क्षेत्र में किसी भूमि में या उस पर किसी अधिकार के दावे को स्वीकार कर सकता है, लेकिन संक्षिप्त प्रक्रिया में, वह धारा 10 के तहत जांच में अधिकार के अस्तित्व का फैसला करने का अधिकार नहीं ले सकता… वैधानिक प्राधिकरण द्वारा मालिकाना हक पर अंतिम फैसला सुनाने का कोई भी प्रयास अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन (Jurisdictional Overreach) होगा।”
मालिकाना हक के दावे की वैधता अदालत ने दावेदारों द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों की जांच की, जिसमें कथित 1833 का बिक्री विलेख और जागीर प्रशासक का 1954 का पत्र शामिल था। पीठ ने नोट किया कि “अपर्याप्त रिकॉर्ड/पत्रों की प्रतियों” के आधार पर यह स्वीकार करना कि भूमि सरकार से विनिवेशित होकर एस्टेट में वापस निहित हो गई, “अत्यधिक असंभव” है और यह एक “विकृत निष्कर्ष” है।
समय सीमा और देरी अदालत ने धारा 6 की उद्घोषणा के 33 साल बाद दायर दावे पर विचार करने के लिए निचले अधिकारियों की आलोचना की। फैसले में कहा गया:
“1977 में दायर एक नियमित वाद को समय सीमा से परे पाया गया था, और आश्चर्यजनक रूप से, तेलंगाना वन अधिनियम की धारा 10 के तहत एक संक्षिप्त जांच में, यह माना गया कि दावा समय सीमा से बाधित नहीं है… भले ही ट्रिब्यूनल के पास दावे दायर करने में देरी को माफ करने की शक्ति हो, लेकिन इसका प्रभाव प्रेस्क्रिप्शन (Prescription) के माध्यम से अर्जित मालिकाना हक को पलटने का नहीं हो सकता।”
अतियत अदालतों की भूमिका स्टेट ऑफ एपी बनाम एपी स्टेट वक्फ बोर्ड (2022) के मिसाल का हवाला देते हुए, कोर्ट ने दोहराया कि अतियत अदालतों (Atiyat Courts) का अधिकार क्षेत्र केवल कम्यूटेशन राशि के वितरण या उत्तराधिकार तक सीमित है और यह अचल संपत्ति के मालिकाना हक को निर्धारित करने तक विस्तारित नहीं है।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि विषयगत भूमि सरकारी भूमि रही है और प्रतिवादियों का दावा निराधार है। कोर्ट ने 15 अक्टूबर 2014 के FSO के आदेश को, जिसे प्रधान जिला न्यायाधीश और हाईकोर्ट ने पुष्टि की थी, रद्द कर दिया।
पीठ ने निम्नलिखित निर्देश जारी किए:
“तेलंगाना राज्य के मुख्य सचिव को निर्देश दिया जाता है कि वे विषयगत भूमि को आरक्षित वन के रूप में शामिल करने के लिए तेलंगाना वन अधिनियम की धारा 15 के तहत लंबित प्रस्तावों को 8 सप्ताह के भीतर पूरा करना सुनिश्चित करें और इस न्यायालय की रजिस्ट्री के समक्ष अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करें।”
नतीजतन, राज्य द्वारा दायर सिविल अपील संख्या 9996/2025 को स्वीकार कर लिया गया। फैसले के आलोक में श्री आगा सैयद नईमत उल्लाह शुस्त्री द्वारा दायर संबंधित सिविल अपील संख्या 9997/2025 को खारिज कर दिया गया।
केस विवरण:
- केस टाइटल: तेलंगाना राज्य (द्वारा फॉरेस्ट डिविजनल ऑफिसर) बनाम मीर जाफर अली खान (मृत) कानूनी वारिसों के माध्यम से व अन्य
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 9996/2025
- पीठ: जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस एस.वी.एन. भट्टी

