सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: वारंट या लिखित कारणों के बिना लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट के तहत तलाशी और जब्ती अवैध

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट, 2009 के तहत बिना पूर्व वारंट और बिना “कारण बताने” की लिखित प्रविष्टि के की गई निरीक्षण, तलाशी और जब्ती अवैध है और कानून की दृष्टि से टिकाऊ नहीं है।

न्यायमूर्ति जे.बी. पारडीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कर्नाटक हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच के फैसले को रद्द करते हुए आईटीसी लिमिटेड के खिलाफ जारी जब्ती और कंपाउंडिंग नोटिस को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि इस अधिनियम और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Cr.P.C.) में निहित प्रक्रियात्मक सुरक्षा अनिवार्य हैं और इन्हें दरकिनार नहीं किया जा सकता।

मामला क्या था?

यह विवाद 2 जुलाई 2020 को शुरू हुआ, जब लीगल मेट्रोलॉजी अधिकारी ने बेंगलुरु स्थित आईटीसी लिमिटेड के गोदाम का निरीक्षण किया। आईटीसी अपने “क्लासमेट” ब्रांड के तहत स्टेशनरी का कारोबार करती है। अधिकारी ने 7,600 पैकेज “क्लासमेट” एक्सरसाइज बुक्स जब्त कर लिए और आरोप लगाया कि लीगल मेट्रोलॉजी (पैकेज्ड कमोडिटीज) नियम, 2011 के नियम 24(ए) का उल्लंघन हुआ है, जो 2009 के अधिनियम की धारा 36(1) के तहत दंडनीय है।

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अधिकारियों का आरोप था कि अनिवार्य घोषणाएं सीधे डिब्बों पर छापने के बजाय केवल लेबल पर चिपकाई गई थीं। उसी दिन आईटीसी को जब्ती और कंपाउंडिंग नोटिस जारी कर दिया गया।

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आईटीसी ने कर्नाटक हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर कर इस कार्रवाई को चुनौती दी। एकल न्यायाधीश ने नोटिस रद्द कर दिए और तलाशी को अवैध बताया। लेकिन राज्य सरकार की अपील पर डिवीजन बेंच ने फैसला पलटते हुए कहा कि अधिनियम की धारा 15 के तहत वारंट आवश्यक नहीं है। इसी आदेश के खिलाफ आईटीसी सुप्रीम कोर्ट पहुंची।

पक्षकारों की दलीलें

आईटीसी लिमिटेड की ओर से (अपीलकर्ता):

  • वरिष्ठ अधिवक्ता ने तर्क दिया कि कार्टन (CFCs) “होलसेल पैकेज” नहीं थे बल्कि केवल परिवहन और सुरक्षा के लिए थे।
  • धारा 15 के तहत “कारण बताने का विश्वास” होना अनिवार्य है, लेकिन ऐसा कोई रिकॉर्ड नहीं किया गया।
  • जब्ती और कंपाउंडिंग नोटिस का एक साथ जारी होना “मानसिक विचार-विमर्श की कमी” दर्शाता है।
  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 100(4) का उल्लंघन हुआ, क्योंकि तलाशी के दौरान केवल एक गवाह (अधिकारियों का ड्राइवर) मौजूद था, जबकि कानून दो स्वतंत्र गवाहों की मांग करता है।
  • गोदाम निजी परिसर था, इसमें प्रवेश के लिए वारंट जरूरी था।

कर्नाटक राज्य की ओर से (प्रतिवादी):

  • राज्य ने कहा कि यह कार्रवाई उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा के लिए की गई और यह गोदाम वाणिज्यिक परिसर था, निजी निवास नहीं, इसलिए वारंट की जरूरत नहीं थी।
  • जब्त पैकेज “होलसेल पैकेज” थे और घोषणाएं नियमों के अनुरूप नहीं थीं।
  • Cr.P.C. की प्रक्रियाएं यहां पूर्ण रूप से लागू नहीं होतीं।
  • अपीलकर्ता के पास अधिनियम की धारा 50 के तहत वैकल्पिक उपाय उपलब्ध था, इसलिए रिट याचिका बनाए रखने योग्य नहीं थी।
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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने धारा 15 लीगल मेट्रोलॉजी एक्ट, 2009 और Cr.P.C. की संबंधित धाराओं का विस्तृत विश्लेषण किया। कोर्ट ने कहा:

  • धारा 15 स्पष्ट रूप से यह मांग करती है कि तलाशी से पहले अधिकारी के पास लिखित रूप में “कारण बताने का विश्वास” होना चाहिए।
  • धारा 15(4) के तहत हर तलाशी और जब्ती Cr.P.C. के प्रावधानों के अनुरूप होनी चाहिए।
  • “परिसर” की परिभाषा (धारा 2(एन)) में गोदाम शामिल है, इसलिए यह तर्क अस्वीकार्य है कि खुले परिसर में नियम लागू नहीं होंगे।
  • सामान्य स्थिति में Cr.P.C. की धारा 93 के तहत वारंट आवश्यक है। आपात स्थिति में यदि धारा 165 के तहत बिना वारंट तलाशी ली जाती है, तो अधिकारी को कारण लिखित रूप से दर्ज करना अनिवार्य है।
  • कोर्ट ने कहा: “किसी भी विशेष अधिनियम के तहत बिना वारंट की गई तलाशी में ‘कारण बताने का विश्वास’ लिखित रूप में दर्ज करना अनिवार्य है।”
  • धारा 100(4) Cr.P.C. का उल्लंघन हुआ, क्योंकि गवाह स्वतंत्र नहीं था।
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सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तलाशी से लेकर जब्ती तक की पूरी कार्यवाही अवैध थी।

कोर्ट ने निष्कर्ष में कहा:
“इस मामले में प्रतिवादियों ने न केवल 2009 अधिनियम की धारा 15 का उल्लंघन किया, बल्कि Cr.P.C. की धारा 100(4) और 165 का भी पालन नहीं किया। कोई ऐसा रिकॉर्ड नहीं है जिससे यह साबित हो कि तलाशी इतनी आकस्मिक थी कि वारंट को दरकिनार किया जा सके।”

पीठ ने अपील स्वीकार करते हुए डिवीजन बेंच का आदेश रद्द कर दिया और एकल न्यायाधीश का आदेश बहाल किया। नतीजतन, आईटीसी लिमिटेड के खिलाफ जारी जब्ती और कंपाउंडिंग नोटिस रद्द कर दिए गए।

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