सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में गुजरात हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें दहेज मृत्यु और आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में घटना के लगभग सात साल बाद अभियोजन पक्ष को एक नाबालिग बच्ची (मृतका की बेटी) की गवाही कराने की अनुमति दी गई थी।
शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 311 के तहत गवाह को बुलाने की शक्ति व्यापक है, लेकिन इसका प्रयोग बहुत ही सावधानी से और केवल तभी किया जाना चाहिए जब वह साक्ष्य “सच्चाई तक पहुंचने के लिए अपरिहार्य” हो। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को बहाल कर दिया, जिसने देरी और बच्ची की कम उम्र का हवाला देते हुए गवाही की अनुमति देने से इनकार कर दिया था।
क्या है पूरा मामला?
यह मामला 2017 का है। 1 दिसंबर 2017 को एक एफआईआर दर्ज कराई गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया कि शिकायतकर्ता की बेटी ने 5 नवंबर 2017 को अपने ससुराल वालों और पति (अपीलकर्ता नंबर 1) द्वारा दहेज की मांग और मानसिक प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। दंपति की शादी 2010 में हुई थी और उनकी एक बेटी ‘आश्वी’ थी, जिसका जन्म 2013 में हुआ था। घटना के समय बच्ची की उम्र लगभग 4 साल 9 महीने थी।
मुकदमे के दौरान, जब 21 गवाहों की गवाही पूरी हो चुकी थी, तब 6 सितंबर 2023 को अभियोजन पक्ष ने सीआरपीसी की धारा 311 के तहत एक आवेदन दायर किया। इसमें मांग की गई कि मृतका की बेटी को गवाह के तौर पर बुलाया जाए, क्योंकि वह घटना के वक्त घर में मौजूद थी।
ट्रायल कोर्ट ने 30 मार्च 2024 को इस आवेदन को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि एफआईआर या किसी भी बयान में यह नहीं कहा गया था कि बच्ची ने घटना को देखा था। हालांकि, गुजरात हाईकोर्ट ने 27 नवंबर 2024 को ट्रायल कोर्ट के आदेश को पलट दिया और बच्ची की गवाही की अनुमति दे दी, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने क्यों रद किया हाईकोर्ट का आदेश?
सुप्रीम कोर्ट ने मामले के तथ्यों और रिकॉर्ड का विश्लेषण करने के बाद पाया कि इस चरण पर नाबालिग गवाह को बुलाना न्यायसंगत नहीं है। पीठ ने अपने फैसले में तीन प्रमुख आधार बताए:
1. घटना के वक्त मौजूदगी का कोई सबूत नहीं सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि रिकॉर्ड पर ऐसा कोई सबूत मौजूद नहीं है जो यह साबित करे कि घटना के वक्त नाबालिग बच्ची वहां मौजूद थी। एफआईआर, जांच के दौरान दर्ज बयान और यहां तक कि शिकायतकर्ता की गवाही में भी बच्ची की मौजूदगी का जिक्र नहीं था।
कोर्ट ने कहा, “शिकायतकर्ता के दोबारा परीक्षण (re-examination) के दौरान दिए गए बयान पर भरोसा करने से यह साबित नहीं होता कि बच्ची ने घटना देखी थी। ज्यादा से ज्यादा यह माना जा सकता है कि वह घर में थी, लेकिन उस कमरे में नहीं जहां घटना हुई। यह मान लेना कि वह चश्मदीद गवाह है, केवल एक अटकल है।”
2. ‘ट्यूशन’ (सिखाए-पढाए जाने) का खतरा और कमजोर याददाश्त कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि घटना को 7 साल से अधिक समय बीत चुका है। घटना के समय बच्ची बहुत छोटी (5 साल से कम) थी।
पीठ ने टिप्पणी की: “इतनी कम उम्र में याददाश्त बाहरी प्रभावों से जल्दी बदल सकती है। यह तथ्य कि बच्ची इस पूरी अवधि के दौरान अपने नाना-नानी (मायके पक्ष) के साथ रह रही है, उसके ‘सिखाए-पढाए’ (tutoring) जाने की उचित आशंका पैदा करता है। यह उसकी प्रस्तावित गवाही की विश्वसनीयता को काफी प्रभावित करता है।”
3. मुकदमे का अंतिम चरण अदालत ने कहा कि यह आवेदन तब दायर किया गया जब 21 गवाहों की गवाही हो चुकी थी। ऐसे में, अब गवाह को बुलाने से केवल मुकदमे में देरी होगी और आरोपियों के प्रति पूर्वाग्रह पैदा होगा। धारा 311 का उपयोग सच्चाई तक पहुंचने के लिए किया जाता है, लेकिन वर्तमान मामले में यह आवश्यकता पूरी नहीं होती।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए गुजरात हाईकोर्ट के 27 नवंबर 2024 के आदेश को रद्द कर दिया और सेशन जज (ट्रायल कोर्ट) के 30 मार्च 2024 के उस आदेश को बहाल कर दिया, जिसमें नाबालिग को गवाह के तौर पर बुलाने की मांग खारिज की गई थी। अब ट्रायल कोर्ट कानून के अनुसार मुकदमे की कार्यवाही आगे बढ़ाएगा।
केस डिटेल्स:
- केस टाइटल: मयंककुमार नटवरलाल कंकना पटेल और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य
- केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर (2025) @ SLP (Crl.) Nos. 1167-1168/2025
- साइटेशन: 2025 INSC 1475
- कोरम: जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह
- अपीलकर्ताओं के वकील: श्री मयंक क्षीरसागर
- प्रतिवादी के वकील: श्री प्रद्युम्न गोहिल (शिकायतकर्ता), सुश्री स्वाति घिल्डियाल (राज्य)

