नई दिल्ली: एक महत्वपूर्ण निर्णय में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि केवल पुनर्विवाह के आधार पर किसी पिता को अपने नाबालिग पुत्र की कस्टडी से वंचित नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने पिता को प्राकृतिक संरक्षक का दर्जा देते हुए उसे अपने बेटे की कस्टडी प्रदान की। यह मामला “विवेक कुमार चतुर्वेदी एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य” (क्रिमिनल अपील नंबर __/2025, विशेष अनुमति याचिका (क्रिमिनल) संख्या 14809/2024) के तहत सुना गया, जिसमें न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने सुनवाई की।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता विवेक कुमार चतुर्वेदी, जो एक प्रशासनिक सेवा अधिकारी हैं, ने अपने नाबालिग पुत्र की कस्टडी के लिए हबीअस कॉर्पस याचिका दायर की थी। 2021 में बच्चे की मां की मृत्यु के बाद से वह अपने नाना-नानी के साथ रह रहा था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए कस्टडी देने से इनकार कर दिया कि बच्चा अपने नाना-नानी के घर में सहज महसूस करता है और पिता का पुनर्विवाह हो चुका है।
कानूनी मुद्दे
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दो महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्नों पर विचार किया:
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- क्या हबीअस कॉर्पस याचिका बाल अभिरक्षा (Child Custody) मामलों में स्वीकार्य है?
- न्यायालय ने तेजस्विनी गाउड़ बनाम शेखर जगदीश प्रसाद तिवारी (2019) और गौतम कुमार दास बनाम एनसीटी दिल्ली (2024) मामलों का हवाला देते हुए कहा कि यदि किसी प्राकृतिक संरक्षक को अनुचित रूप से नाबालिग की कस्टडी से वंचित किया जाता है, तो हबीअस कॉर्पस याचिका दायर की जा सकती है।
- क्या पिता का पुनर्विवाह उसकी अभिभावक के रूप में कस्टडी पाने की योग्यता को प्रभावित करता है?
- कोर्ट ने यह माना कि पिता का पुनर्विवाह मात्र उसके अभिभावक के अधिकार को खत्म नहीं कर सकता, जब तक कि वह बच्चे की देखभाल और भलाई सुनिश्चित कर सकता हो।
सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण अवलोकन
न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन ने अपने निर्णय में बच्चे के हितों की प्राथमिकता को रेखांकित करते हुए कहा:
“पिता, जो प्राकृतिक संरक्षक है, शिक्षित और अच्छी तरह से नियोजित है। उसके अधिकार और अपने बच्चे की कस्टडी प्राप्त करने की वैध इच्छा को खारिज करने का कोई आधार नहीं है।”
इसके साथ ही, उच्च न्यायालय की यह धारणा कि केवल पुनर्विवाह के कारण पिता को कस्टडी नहीं मिल सकती, गलत ठहराई गई।
पीठ ने कहा:
“पिता का पुनर्विवाह ही एकमात्र आधार नहीं हो सकता जिससे उसे अपने बच्चे से अलग किया जाए, विशेष रूप से जब उसने बच्चे के कल्याण के लिए ठोस कदम उठाए हैं।”
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए पिता को बच्चे की कस्टडी देने का आदेश दिया। हालांकि, न्यायालय ने बच्चे के लिए एक क्रमबद्ध रूपांतरण (Phased Transition) प्रक्रिया निर्धारित की:
- 30 अप्रैल 2025 तक – बच्चा अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए नाना-नानी के पास रहेगा।
- वैकल्पिक सप्ताहांत (Alternate Weekends) – पिता को सप्ताहांत में बच्चे की कस्टडी दी जाएगी।
- 1 मई 2025 – बच्चे की पूरी कस्टडी पिता को सौंपी जाएगी, जिसमें स्थानीय थाना प्रभारी की उपस्थिति अनिवार्य होगी।
- बाद की मुलाकातें – नाना-नानी को जून 2025 से प्रत्येक द्वितीय शनिवार को बच्चे से मिलने की अनुमति होगी।
दोनों पक्षों की दलीलें
- पिता (अपीलकर्ता) की ओर से: अधिवक्ता गोपाल झा ने दलील दी कि पिता ने अपने बेटे के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए भूमि हस्तांतरित की, ₹10 लाख जमा किए, और ₹25 लाख का जीवन बीमा लिया है। उनकी दूसरी पत्नी ने भी शपथ पत्र देकर कहा कि वह बच्चे का पालन-पोषण करने के लिए तैयार हैं।
- नाना-नानी (प्रतिवादी) की ओर से: अधिवक्ता राजीव कुमार दुबे ने निर्मला बनाम कुलवंत सिंह (2024) मामले का हवाला देते हुए तर्क दिया कि बच्चे की पसंद को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और कस्टडी के मामलों का निपटारा गार्जियन एंड वार्ड्स एक्ट, 1890 के तहत किया जाना चाहिए, न कि हबीअस कॉर्पस याचिका के माध्यम से।