सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि यदि नदी तल की मौजूदा स्थिति और उसकी सतत क्षमता का समुचित अध्ययन किए बिना बालू खनन के लिए पर्यावरणीय मंजूरी (EC) दी जाती है, तो यह पारिस्थितिकी के लिए गंभीर रूप से हानिकारक होगा।
न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए. एस. चंदुरकर की पीठ ने कहा कि निर्माण कार्यों के लिए बालू की मांग तेजी से बढ़ रही है और विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक यह संसाधन समाप्त भी हो सकता है।
पीठ ने कहा कि यद्यपि बालू नदियों और जलीय क्षेत्रों में मिलने वाली एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक सेवा है, लेकिन नियंत्रित परिस्थितियों में भी इसका खनन पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है।

“भौतिक पर्यावरण में इसका प्रत्यक्ष प्रभाव नदी तल के चौड़ा होने और नीचा होने के रूप में सामने आता है। जैविक पर्यावरण में इसका असर जैव विविधता में कमी के रूप में होता है, जिससे जलीय और तटवर्ती वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं के साथ-साथ पूरी बाढ़भूमि प्रभावित होती है,” अदालत ने कहा।
अदालत ने यह भी चेताया कि खनन की विधि और नदी की आकृति व प्रवाह के आधार पर अनियंत्रित खनन नदी किनारों के कटाव, नदी तल के क्षरण और पारिस्थितिकी तंत्र को अपूरणीय हानि पहुँचा सकता है।
सतत खनन को सुनिश्चित करने के लिए पीठ ने पुनर्भरण (Replenishment) अध्ययन की अनिवार्यता पर जोर दिया।
“यह माना गया है कि विस्तृत अध्ययन से तैयार किया गया पुनर्भरण रिपोर्ट जिला सर्वे रिपोर्ट का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए। यदि जिला सर्वे रिपोर्ट पर्यावरणीय मंजूरी पर विचार करने का आधार है, तो यह अनिवार्य है कि पुनर्भरण अध्ययन पहले ही कर लिए जाएं,” पीठ ने कहा।
अदालत ने स्पष्ट किया कि जिला सर्वे रिपोर्ट (DSR)— जो भूविज्ञान, सिंचाई, वन, लोक निर्माण या खनन विभाग द्वारा तैयार की जाती है — का उद्देश्य खनन योग्य क्षेत्रों की पहचान, निषिद्ध क्षेत्रों का निर्धारण, संसाधनों के पुनर्भरण की दर का आकलन तथा खनन के बाद आवश्यक विश्राम अवधि तय करना होता है।
पीठ ने कहा कि यदि जिला सर्वे रिपोर्ट में पुनर्भरण अध्ययन को शामिल किए बिना मंजूरी दी जाती है, तो यह पारिस्थितिकी के लिए हानिकारक होगा और अत्यधिक बालू खनन से संकट और गहरा सकता है।