सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के मामले पर फैसला सुरक्षित रख लिया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने दस दिनों तक सुनवाई में सभी पक्षों की दलीलें सुनीं।
सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई को सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ से मामले की सुनवाई से अलग होने की मांग खारिज कर दी। इस मांग पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी आपत्ति जताई थी। सुनवाई के दौरान राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने कहा था कि जेंडर की अवधारणा ‘परिवर्तनशील’ हो सकती है, लेकिन मां और मातृत्व नहीं। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय कानून अकेले व्यक्ति को भी बच्चा गोद लेने की अनुमति देता है। एक बच्चे का कल्याण सर्वोपरि होता है। देश का कानून विभिन्न कारणों से गोद लेने की अनुमति प्रदान करता है। अगर आप संतानोत्पत्ति में सक्षम हैं तब भी आप बच्चा गोद ले सकते हैं। जैविक संतानोत्पत्ति की कोई अनिवार्यता नहीं है।
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि इस मुद्दे पर केंद्र को केवल सात राज्यों की प्रतिक्रिया मिली है, जिसमें राजस्थान सरकार भी शामिल है। राजस्थान सरकार ने समलैंगिकों को मान्यता देने का विरोध किया है। मेहता ने कहा कि मणिपुर, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, असम, सिक्किम और राजस्थान से जवाब मिले हैं। राजस्थान छोड़कर बाकी राज्यों ने कहा है कि उन्हें इस पर व्यापक चर्चा करने की जरूरत है।
पहले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि शादी और तलाक के मामले में कानून बनाने का अधिकार तो संसद को ही है। ऐसे में हमें यह देखना होगा कि कोर्ट कहां तक जा सकता है। सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं में से एक की वकील मेनका गुरुस्वामी ने कहा था कि सरकार का जवाब संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। ये केशवानंद भारती और पुट्टु स्वामी मामलों में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के भी विरुद्ध है, क्योंकि न्यायिक समीक्षा का अधिकार अनुच्छेद 32 के तहत संविधान की मूल भावना है।
इस संविधान बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस रवींद्र भट, जस्टिस हीमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा शामिल हैं। 13 मार्च को कोर्ट ने इस मामले को संविधान बेंच को को रेफर कर दिया था।