सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने शनिवार को कहा कि तकनीक भौगोलिक बाधाओं को तोड़ सकती है और कानूनी सहायता को हर नागरिक के दरवाजे तक पहुंचा सकती है। उन्होंने यह वक्तव्य फरीदाबाद स्थित मानव रचना विश्वविद्यालय में न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी स्मृति व्याख्यान के दौरान दिया। व्याख्यान का विषय था — “डिजिटल युग में समावेशी न्याय के लिए कानूनी सहायता की पुनर्कल्पना: एक सेतु निर्माण”।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 39A के तहत हर नागरिक को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करना राज्य का दायित्व है, लेकिन इसके बावजूद देश के करोड़ों लोग — विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के नागरिक, महिलाएं, बच्चे, दिव्यांग, बुजुर्ग, प्रवासी मजदूर और आदिवासी समुदाय — अब भी न्याय व्यवस्था से कोसों दूर हैं।
“हमें यह आत्ममंथन करना चाहिए कि स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी क्या न्याय सचमुच सबके लिए सुलभ है?” उन्होंने सवाल किया।

डिजिटल असमानता — एक नई चुनौती
उन्होंने कहा कि अब गरीबी, अशिक्षा, जाति और लिंग के साथ-साथ डिजिटल बहिष्करण भी न्याय तक पहुंच में बड़ी बाधा बन चुका है। उन्होंने आगाह किया कि केवल डिजिटल समाधान बनाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उन्हें समावेशी और नैतिक दृष्टिकोण से डिज़ाइन किया जाना चाहिए।
“कानूनी सहायता किसी ‘टिकट सिस्टम’ जैसी न हो जाए, यह जरूरी है। लोगों की समस्याएं सिर्फ नंबर नहीं हैं — सुनना, समझाना और भरोसा देना भी उतना ही आवश्यक है।”
तकनीक की भूमिका — एक नई दिशा
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने बताया कि भारत में 1.2 अरब मोबाइल कनेक्शन हैं और 85.5% घरों में कम से कम एक स्मार्टफोन है। उन्होंने सुझाव दिया कि मोबाइल आधारित कानूनी सहायता से एक क्रांति लाई जा सकती है।
उन्होंने NALSA Companion App की परिकल्पना रखी जो हर अनुसूचित भाषा में, वॉयस, वीडियो और टेक्स्ट के माध्यम से कानूनी जानकारी दे सके, अधिकारों को स्पष्ट कर सके, और जरूरतमंदों को वकीलों या पैरा लीगल से जोड़ सके।
“IVR प्रणाली के माध्यम से दृष्टिहीन और निरक्षर लोगों को कानूनी सलाह दी जा सकती है। AI के माध्यम से दस्तावेजों का सरलीकरण और क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद भी संभव है,” उन्होंने कहा।
वर्चुअल लोक अदालतें और AI का इस्तेमाल
उन्होंने वर्चुअल लोक अदालतों को एक व्यवहारिक विकल्प बताते हुए कहा कि श्रम विवाद, पारिवारिक विवाद और छोटे दीवानी मामलों की सुनवाई डिजिटल माध्यम से हो सकती है जिससे समय और संसाधनों की बचत होगी।
उन्होंने बताया कि कोविड काल के दौरान महाराष्ट्र में हजारों मामलों का वर्चुअल माध्यम से निपटारा हुआ और तमिलनाडु में AI आधारित चैटबॉट्स भूमि अधिकारों पर लोगों को स्थानीय भाषा में जानकारी दे रहे हैं।
डिजिटल साक्षरता और गोपनीयता को प्राथमिकता
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने जोर दिया कि तकनीक की दौड़ में डिजिटल साक्षरता, गोपनीयता और सुरक्षा जैसे मूलभूत पहलुओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
“न्यायिक प्लेटफॉर्म्स को इस प्रकार डिज़ाइन किया जाना चाहिए जो दिव्यांगजनों, स्क्रीन रीडर उपयोगकर्ताओं और तकनीक से कम परिचित लोगों के लिए भी अनुकूल हों,” उन्होंने कहा।
उन्होंने सभी शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी निकायों से आग्रह किया कि वे डिजिटल साक्षरता अभियान चलाएं, विशेषकर ग्रामीण युवाओं, महिलाओं और वरिष्ठ नागरिकों को लक्षित करते हुए।
न्यायपालिका और सरकार की साझेदारी जरूरी
उन्होंने कहा कि डिजिटल इंडिया, ई-कोर्ट्स मिशन मोड प्रोजेक्ट और JAM ट्रिनिटी जैसे सरकारी प्रयासों को न्यायिक सुधारों से जोड़ना होगा, ताकि समावेशी डिजिटल न्याय की परिकल्पना साकार हो सके।
“तकनीक कोई जादू की छड़ी नहीं है, लेकिन यह असाधारण साधन जरूर है। यदि हम इसे सही दृष्टिकोण और नैतिकता के साथ अपनाएं, तो यह न्यायिक प्रणाली में मौजूद गहराई से जुड़ी खाइयों को भर सकती है,” उन्होंने निष्कर्ष में कहा।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत का यह व्याख्यान न्याय तक पहुंच को लेकर एक नए युग की शुरुआत की संभावनाओं को उजागर करता है — जहां तकनीक, संवेदना और समावेशन के साथ मिलकर हर नागरिक के लिए न्याय को सुलभ बना सकती