सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी की हत्या के दोषी ठहराए गए व्यक्ति की अपील खारिज करते हुए कहा कि उसकी नौ वर्षीय बेटी की ‘अडिग’ गवाही अभियोजन के मामले का प्रमुख आधार है। न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के समान निष्कर्ष को बरकरार रखते हुए कहा कि यह बाल गवाह ‘स्टर्लिंग वर्थ’ की है और उसे अपने पिता पर झूठा आरोप लगाने का कोई कारण नहीं था।
मामला पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता मनोहर केशवराव खंडाते को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, अमरावती ने भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के तहत अपनी पत्नी श्रीमती रंजना की हत्या के अपराध में दोषी पाया था। 14 अगस्त 2007 को ट्रायल कोर्ट ने उसे आजीवन कठोर कारावास और 5,000 रुपये जुर्माने की सज़ा सुनाई।
उसने इस फैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट, नागपुर खंडपीठ में चुनौती दी, जिसे 1 अप्रैल 2011 को खारिज कर दिया गया। इसके बाद विशेष अनुमति से यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा।
पत्नी की मौत हत्या थी, यह तथ्य अपीलकर्ता के वकील ने विवादित नहीं किया। पोस्टमार्टम करने वाले चिकित्सक (PW-4) की गवाही से स्पष्ट हुआ कि मृत्यु सिर पर कुंद हथियार से लगी चोटों के कारण हुई।

अभियोजन का मामला
अभियोजन ने मुख्य रूप से अपीलकर्ता की नौ वर्षीय बेटी (PW-3) की गवाही पर भरोसा किया, जो घटना के समय घर में मौजूद थी।
बाल गवाह ने बताया कि उसका पिता, जो साइकिल रिक्शा चलाता था, शराब पीने के बाद अक्सर माँ को पीटता था। घटना की रात वह माँ के बगल में सोई थी, तभी शोर सुनकर उठी। उसने पिता को माँ के पास बैठे देखा, जो चादर से ढकी हुई थी। पूछने पर पिता ने कहा कि माँ बीमार है और वह डॉक्टर बुलाने जा रहा है, साथ ही चादर हटाने से मना किया।
पिता के न लौटने पर उसने चादर हटाई और माँ के सिर से खून बहता देखा। घबराकर उसने मकान मालिक अरुण भगवानराव खंडेटोड (PW-1) को सूचना दी, जिन्होंने पुलिस को खबर दी।
मकान मालिक और मेडिकल सबूत ने उसकी गवाही की पुष्टि की। गिरफ्तारी के समय आरोपी की शर्ट पर “ग्रुप A” का खून पाया गया, जो मृतका के रक्त समूह से मेल खाता था।
सुप्रीम कोर्ट की विश्लेषण और निष्कर्ष
पीठ ने कहा—
“बाल गवाह (PW-3) की गवाही का हमने गहराई से परीक्षण किया और पाया कि यह बिल्कुल स्वाभाविक है, और वह ‘स्टर्लिंग वर्थ’ की गवाह है।”
अदालत ने नोट किया कि जिरह में भी उसकी गवाही नहीं डगमगाई और वह अपने कथन पर अडिग रही। रिश्तेदारों द्वारा उसे सिखाने की दलील को अदालत ने खारिज कर दिया।
अदालत ने आरोपी के आचरण को भी दोषसिद्धि के संकेत के रूप में देखा—
“आरोपी-अपीलकर्ता ने बाल गवाह को चादर न हटाने का निर्देश दिया, जो स्पष्ट रूप से उसके दोषी मनोभाव को दर्शाता है क्योंकि वह नहीं चाहता था कि बच्ची अपनी माँ की स्थिति देखे।”
इसके बाद उसका घर से फरार होना भी अदालत ने महत्वपूर्ण माना।
सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 का हवाला देते हुए कहा कि घटना घर की चारदीवारी के भीतर हुई, जहाँ आरोपी मृतका और बच्ची के साथ अकेला सक्षम व्यक्ति था, इसलिए यह उसका दायित्व था कि वह विश्वसनीय स्पष्टीकरण दे कि पत्नी को घातक चोटें कैसे लगीं।
निर्णय में कहा गया—
“धारा 313 सीआरपीसी के तहत दिया गया आरोपी का मात्र इनकार स्पष्ट रूप से बाद में गढ़ी गई दलील है और धारा 106 साक्ष्य अधिनियम के तहत उस पर डाले गए भार को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है।”
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को “गुणहीन” पाते हुए खारिज कर दिया और धारा 302 आईपीसी के तहत दोषसिद्धि व उम्रकैद की सज़ा बरकरार रखी।
2018 में दिए गए जमानत आदेश के तहत मिली रिहाई को रद्द करते हुए अदालत ने आरोपी को चार सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष शेष सज़ा भुगतने के लिए आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया।