केवल सिज़ोफ्रेनिया का आरोप तलाक़ का आधार नहीं जब तक यह साबित न हो कि यह वैवाहिक जीवन को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है: पटना हाईकोर्ट

पटना हाईकोर्ट ने नवादा की फैमिली कोर्ट के उस निर्णय को बरकरार रखा है, जिसमें पति द्वारा क्रूरता, परित्याग और मानसिक रोग के आधार पर तलाक़ की याचिका को खारिज कर दिया गया था। यह निर्णय न्यायमूर्ति पी. बी. बजंथरी और न्यायमूर्ति सुनील दत्ता मिश्रा की खंडपीठ ने फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 19 के तहत दायर मिसलेनियस अपील संख्या 1152/2018 में सुनाया।

पृष्ठभूमि

अपीलकर्ता-पति ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i-a) और (i-b) के तहत तलाक़ की याचिका दायर की थी। यह विवाह 21.05.2005 को संपन्न हुआ था। प्रारंभ में यह मामला अलीपुर (पश्चिम बंगाल) के जिला एवं सत्र न्यायाधीश के समक्ष दायर हुआ था, जिसे माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा 02.10.2012 को नवादा की फैमिली कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया।

पति ने आरोप लगाया कि विवाह के तुरंत बाद पत्नी का व्यवहार असामान्य हो गया और बाद में उसे सिज़ोफ्रेनिया तथा पैर में विकलांगता की बीमारी बताई गई। उन्होंने यह भी दावा किया कि पत्नी ने उसे बिना किसी कारण शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया और 2006 में स्वेच्छा से matrimonial घर छोड़ दिया, साथ ही कुछ दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर विवाह समाप्त करने की सहमति दी।

पत्नी का पक्ष

पत्नी ने सभी आरोपों से इनकार किया। अपने लिखित जवाब में उन्होंने कहा कि विवाह के समय वह पूर्णतः स्वस्थ थीं और विवाह से पहले अपीलकर्ता के परिवार ने उनका निरीक्षण किया था। उन्होंने मानसिक बीमारी, सिज़ोफ्रेनिया या किसी भी प्रकार की शारीरिक विकलांगता के आरोपों को स्पष्ट रूप से झूठा और मनगढ़ंत बताया। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि पति द्वारा प्रस्तुत किए गए दस्तावेज जाली हैं और उन्होंने साथ रहने की इच्छा भी प्रकट की।

कार्यवाही और साक्ष्य

फैमिली कोर्ट ने मामले में पांच मुद्दों पर विचार किया – याचिका की स्वीकार्यता, कारण, क्रूरता, परित्याग, और राहत का हकदार कौन है। अपीलकर्ता ने स्वयं सहित दो गवाह पेश किए, वहीं उत्तरदात्री-पत्नी ने स्वयं सहित तीन गवाह प्रस्तुत किए।

फैमिली कोर्ट ने पाया कि पति ने अपने आरोपों को न तो किसी दस्तावेज़ से और न ही चिकित्सकीय प्रमाण से सिद्ध किया। कोर्ट में पत्नी की स्वतन्त्र गतिविधि यह साबित करती है कि उन्हें किसी प्रकार की शारीरिक विकलांगता नहीं थी। इसके अलावा, पति ने कोई डॉक्टर पेश नहीं किया और न ही सिज़ोफ्रेनिया से संबंधित कोई मेडिकल रिकॉर्ड प्रस्तुत किया।

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कोर्ट ने यह भी पाया कि वास्तव में पति ने ही पत्नी को छोड़ दिया था और वह यह सिद्ध नहीं कर सके कि पत्नी ने क्रूरता की या उन्हें त्यागा। इसलिए 22.11.2018 को निर्णय और 04.12.2018 को डिक्री पारित कर तलाक़ की याचिका खारिज कर दी गई।

हाईकोर्ट का विश्लेषण

अपील पर विचार करते हुए हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के निष्कर्षों से सहमति जताई। कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(iii) के अनुसार केवल मानसिक रोग का अस्तित्व ही तलाक़ का आधार नहीं बनता। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों – राम नारायण गुप्ता बनाम श्रीमती रमेश्वरी गुप्ता [(1988) 4 SCC 247] तथा कोल्लम चंद्र शेखर बनाम कोल्लम पद्मलता [(2014) 1 SCC 225] – का हवाला देते हुए कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि मानसिक रोग इस सीमा तक गंभीर होना चाहिए कि साथ रहना असंभव हो जाए और इसे चिकित्सकीय साक्ष्य से सिद्ध किया जाना आवश्यक है।

कोर्ट ने कहा: “सभी मानसिक असमान्यताएं तलाक़ का आधार नहीं होतीं। मानसिक रोग की आवश्यक सीमा के अस्तित्व का प्रमाण देना उस पति या पत्नी की ज़िम्मेदारी है जो इस आधार पर तलाक़ की मांग करता है।”

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कोर्ट ने यह भी कहा कि अस्पष्ट आरोप या अपने पक्ष में कहे गए दावे, यदि चिकित्सकीय साक्ष्यों या दस्तावेजों से समर्थित नहीं हैं, तो वे पर्याप्त नहीं माने जा सकते। अपीलकर्ता कोई विश्वसनीय प्रमाण प्रस्तुत करने में विफल रहे। इसके अलावा, जब स्वयं पति ने पत्नी को त्याग दिया, तो वह तलाक़ की राहत पाने के अधिकारी नहीं हो सकते।

निर्णय

अपील को खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने कहा:

“पति द्वारा यह साबित करने हेतु कोई पर्याप्त सामग्री रिकॉर्ड पर नहीं लाई गई कि पत्नी ऐसी श्रेणी और स्तर की सिज़ोफ्रेनिया से ग्रसित हैं, जिसे विवाह विच्छेद के आधार के रूप में स्वीकार किया जा सके… फैमिली कोर्ट का निर्णय न तो किसी त्रुटि से ग्रसित है और न ही इसमें हस्तक्षेप की आवश्यकता है।”

इस प्रकार, मिसलेनियस अपील खारिज कर दी गई और फैमिली कोर्ट का निर्णय बरकरार रखा गया।

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