रजिस्टर्ड रिलीज डीड को चुनौती दिए बिना सीधे बंटवारे का मुकदमा स्वीकार्य नहीं; लिमिटेशन की अवधि जानकारी मिलने की तारीख से शुरू होगी: मद्रास हाईकोर्ट

मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में विभाजन के प्रारंभिक डिक्री (preliminary decree) को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि यदि संपत्ति के संबंध में कोई रजिस्टर्ड रिलीज डीड (Registered Release Deed) मौजूद है, तो उसे रद्द कराने या शून्य घोषित कराने की विशिष्ट प्रार्थना (Specific Prayer) के बिना केवल विभाजन का मुकदमा (Suit for Partition Simpliciter) पोषणीय (Maintainable) नहीं है।

जस्टिस जी. जयचंद्रन और जस्टिस मुम्मीनेनी सुधीर कुमार की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि केवल गलत बयानी (Misrepresentation) का आरोप लगाकर किसी रजिस्टर्ड दस्तावेज को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसके लिए कानून के तहत विशिष्ट दलीलों और लिमिटेशन एक्ट (Limitation Act) का पालन करना अनिवार्य है।

मामले का मुख्य कानूनी बिंदु

अदालत के सामने मुख्य सवाल यह था कि क्या वर्षों पहले निष्पादित रजिस्टर्ड रिलीज डीड को रद्द कराने की मांग किए बिना विभाजन का मुकदमा चलाया जा सकता है? और क्या जानकारी मिलने के तीन साल बाद दायर किया गया ऐसा मुकदमा समय-बाधित (Time-barred) माना जाएगा?

हाईकोर्ट ने कहा कि एक रजिस्टर्ड रिलीज डीड की वैधता की कानूनी धारणा (Presumption of Validity) होती है। नतीजतन, लिमिटेशन अवधि के भीतर इसे चुनौती दिए बिना दायर किया गया विभाजन का मुकदमा स्वीकार्य नहीं है। कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए प्रतिवादियों (Defendants) की अपील को स्वीकार कर लिया।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला स्वर्गीय कृष्णासामी पिल्लई की संपत्ति से जुड़ा है, जिनका 4 अगस्त 1990 को निधन हो गया था। उनके पीछे उनकी मां, पत्नी, पांच बेटियां और एक बेटा अनंतगोपाल (पहला प्रतिवादी) थे। वादी (पत्नी और बेटियों) ने पुडुचेरी, कराईकल के अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के समक्ष विभाजन और अपने 1/7वें हिस्से के लिए मुकदमा (O.S.No.6 of 2007) दायर किया था।

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वादी पक्ष का आरोप था कि कृष्णासामी पिल्लई की मृत्यु के बाद, पहले प्रतिवादी (बेटे) ने 8 अक्टूबर 1990 को धोखे से उनसे एक रिलीज डीड पर हस्ताक्षर करवा लिए थे। उन्होंने दावा किया कि बेटे ने इसे माहे और सेशेल्स में कारोबार संभालने के लिए ‘पावर ऑफ अटॉर्नी’ बताया था। उन्होंने कहा कि उन्हें दस्तावेज की असलियत का पता नवंबर 2006 में चला।

निचली अदालत ने 30 मार्च 2010 को वादी के पक्ष में फैसला सुनाया था और रिलीज डीड को धोखाधड़ी के आधार पर शून्य मान लिया था। इसके खिलाफ पहले प्रतिवादी और संपत्ति के खरीदारों ने हाईकोर्ट में अपील दायर की थी।

पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता (प्रतिवादी):

  • रिलीज डीड 1990 में निष्पादित एक रजिस्टर्ड दस्तावेज था जिस पर कई वर्षों तक अमल किया गया।
  • वादी ने दस्तावेज के निष्पादन को स्वीकार किया है, लेकिन इसे रद्द करने के लिए कोई विशिष्ट प्रार्थना नहीं की।
  • मुकदमा लिमिटेशन एक्ट (Limitation Act) के तहत समय-बाधित है क्योंकि पहली वादी (PW.1) ने गवाही में स्वीकार किया था कि उसे 2001 में ही रिलीज डीड के बारे में पता चल गया था, फिर भी मुकदमा 2007 में दायर किया गया।
  • सीपीसी (CPC) के आदेश VI नियम 4 के तहत धोखाधड़ी के आरोपों के लिए विशिष्ट विवरण देना आवश्यक है, जो इस मामले में नहीं दिया गया।
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उत्तरदाता (वादी):

  • रिलीज डीड कानून की नजर में ‘नॉन-एस्ट’ (शून्य) है क्योंकि इसे संदिग्ध परिस्थितियों और गलत बयानी के जरिए प्राप्त किया गया था।
  • इस डीड में नाबालिगों के हित शामिल थे और इसके लिए कोर्ट की अनुमति नहीं ली गई थी, इसलिए यह शून्य है।
  • चूंकि दस्तावेज शुरू से ही शून्य (Void ab initio) था, इसलिए वे इसे नजरअंदाज कर सीधे विभाजन की मांग कर सकते हैं।

कोर्ट का विश्लेषण और फैसला

हाईकोर्ट की खंडपीठ ने मामले को निर्धारित करने के लिए मुख्य बिंदु यह तय किया कि क्या रिलीज डीड के निष्पादन के बाद, उसे रद्द कराए बिना विभाजन का साधारण मुकदमा चल सकता है?

1. लिमिटेशन और जानकारी (Limitation and Knowledge): कोर्ट ने पहली वादी (PW.1) की स्वीकृति पर गौर किया, जिसने कहा था कि 2001 में सेशेल्स यात्रा के दौरान उसे रिलीज डीड के बारे में पता चल गया था। कोर्ट ने कहा:

“निचली अदालत यह विचार करने में विफल रही कि Ex.B26 (रिलीज डीड) पर अमल किया गया था और तीसरे पक्ष के हित अस्तित्व में आ गए थे। वादी का यह तर्क कि उन्हें 16 वर्षों तक रिलीज डीड की जानकारी नहीं थी, स्वयं उनकी स्वीकृति के विपरीत और झूठा है।”

बेंच ने कहा कि लिमिटेशन एक्ट के अनुच्छेद 58 और 59 के तहत, किसी दस्तावेज को रद्द करने या अलग करने का मुकदमा जानकारी मिलने की तारीख से तीन साल के भीतर दायर किया जाना चाहिए। चूंकि 2001 में जानकारी होने की बात स्वीकार की गई थी, इसलिए 2007 में दायर मुकदमा पूरी तरह से समय-बाधित है।

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2. रजिस्टर्ड दस्तावेजों की वैधता: कोर्ट ने जोर देकर कहा कि एविडेंस एक्ट की धारा 114 के तहत रजिस्टर्ड दस्तावेज की वैधता की उपधारणा (Presumption) होती है। इसे गलत साबित करने के लिए सीपीसी के आदेश VI नियम 4 के तहत धोखाधड़ी की विशिष्ट दलीलें होनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि केवल अस्पष्ट आरोपों के आधार पर रजिस्टर्ड दस्तावेज को रद्द नहीं किया जा सकता।

3. नाबालिगों का हित: नाबालिगों के अधिकारों के तर्क पर, बेंच ने शंकरनारायण पिल्लई बनाम कंडासामिया पिल्लई (1956) के फुल बेंच फैसले का हवाला दिया। कोर्ट ने कहा कि जब कोई नाबालिग किसी दस्तावेज में पक्षकार होता है जिसे वह रद्द करना चाहता है, तो केवल कब्जे (Possession) के लिए मुकदमा करना काफी नहीं है, बल्कि उसे दस्तावेज को रद्द करने की प्रार्थना करनी होगी और उसके लिए कोर्ट फीस जमा करनी होगी।

निष्कर्ष: मद्रास हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि निचली अदालत का फैसला तर्कहीन था और कानून को लागू करने में विफल रहा। बेंच ने माना कि रिलीज डीड (Ex.B26) वैध है और परिणामस्वरूप, तीसरे और चौथे प्रतिवादी को किए गए संपत्ति के हस्तांतरण भी वैध हैं।

परिणाम:

  • O.S.No.6 of 2007 में पारित निर्णय और डिक्री को रद्द (Set aside) कर दिया गया।
  • सभी अपीलें (A.S.Nos. 708, 817 of 2010 और 579 of 2022) स्वीकार (Allowed) कर ली गईं।

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