सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि जो व्यक्ति किसी संपत्ति पर उस समय कब्जा लेता है जब उस पर पहले से मुकदमा लंबित हो और वह इस कानूनी विवाद से पूरी तरह अवगत हो, तो उसे ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882 की धारा 53A के तहत कोई संरक्षण नहीं मिल सकता।
यह निर्णय सिविल अपील संख्या 3616/2024 में सुनाया गया, जिसमें राजू नायडू द्वारा पुडुचेरी स्थित एक संपत्ति पर दावे को खारिज कर दिया गया। अदालत ने कहा कि नायडू का कब्जा न तो वैध था और न ही कानूनी संरक्षण के योग्य, क्योंकि यह लंबित अदालती कार्यवाही के दौरान लिया गया था।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने नायडू की अपील को खारिज करते हुए मद्रास हाईकोर्ट और निचली अदालतों के फैसलों को सही ठहराया।
मामले की पृष्ठभूमि:
विवाद दो संपत्तियों को लेकर था — एक मारीअम्मन कोविल स्ट्रीट पर (‘A’ शेड्यूल) और दूसरी चेत्ती स्ट्रीट पर (‘B’ शेड्यूल)। ‘A’ शेड्यूल संपत्ति की मालकिन तिरंती तैम की मृत्यु 1976 में हुई, जिसके बाद यह संपत्ति उनके आठ बच्चों को मिली। वहीं, ‘B’ शेड्यूल संपत्ति चेनमुगम अरूमुगम ने 1977 में खरीदी और 1978 में एक उत्तराधिकारी (प्रतिवादी संख्या 9) के पक्ष में वसीयत लिखी, जिनसे उनके करीबी संबंध बताए गए।
1981 में, जब उनके एक बेटे (प्रतिवादी संख्या 2) ने संपत्ति हस्तांतरित करने से रोकने के लिए मुकदमा दायर किया था, तब चेनमुगम ने नायडू से ‘B’ शेड्यूल संपत्ति के लिए बिक्री अनुबंध किया और 60,000 में से 40,000 रुपये अग्रिम लेकर कब्जा भी दे दिया।
1982 में चेनमुगम की मृत्यु के बाद, उनके बच्चों ने वसीयतों को अमान्य घोषित करने और संपत्ति की वसूली के लिए मुकदमा दायर किया। 1986 में निचली अदालत ने निर्णय दिया कि नायडू को कब्जा रखने का अधिकार नहीं है और 40,000 रुपये वापस मिलने पर उन्हें संपत्ति खाली करनी होगी।
अपीलकर्ता की दलीलें:
नायडू ने दलील दी कि उन्हें धारा 53A के तहत संरक्षण मिलना चाहिए क्योंकि उन्होंने वैध बिक्री अनुबंध के तहत आंशिक भुगतान किया था। उन्होंने यह भी कहा कि प्रतिवादियों द्वारा दायर निष्पादन याचिका समय-सीमा से बाहर थी और अदालत को वापसी की अवधि बढ़ाने का अधिकार नहीं था।
प्रतिवादियों का पक्ष:
वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा पेश प्रतिवादियों ने कहा कि नायडू को मुकदमे की जानकारी थी और ऐसे में वे न्यायिक संरक्षण के हकदार नहीं हैं। उन्होंने यह भी बताया कि नायडू का कब्जा बिक्री अनुबंध के तहत नहीं बल्कि एक पट्टे (लीज़) के तहत हुआ था, जिससे धारा 53A लागू नहीं होती। साथ ही 1993 में अपीलीय अदालत के फैसले से समयसीमा पुनः प्रारंभ हुई और याचिका समय के भीतर थी।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज करते हुए कहा:
“यह निर्विवाद है कि याचिकाकर्ता को मुकदमे की जानकारी थी, इसके बावजूद उन्होंने प्रतिवादियों के पिता से समझौता किया, और वह मूल हस्तांतरकर्ता से बेहतर अधिकार नहीं ले सकते।”
अदालत ने lis pendens (लंबित विवाद के दौरान हस्तांतरण की अस्वीकृति) सिद्धांत की पुष्टि की:
“कोर्ट ने बार-बार कहा है कि लंबित विवाद के दौरान खरीदार के सीमित अधिकार डिक्रीधारकों के संपूर्ण दावे में रुकावट नहीं बन सकते।”
चंदी प्रसाद बनाम जगदीश प्रसाद (2004 (8) SCC 724) के हवाले से अदालत ने डॉक्ट्रिन ऑफ मर्जर की भी पुष्टि की, जिसमें कहा गया कि एक बार अपीलीय डिक्री पारित हो जाने पर निचली अदालत की डिक्री का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
अंततः अदालत ने समयसीमा संबंधी आपत्ति को भी खारिज कर दिया:
“अपीलकर्ता के वकील द्वारा यह तर्क कि निष्पादन याचिका 12 वर्ष की सीमा से बाहर थी, न तो विधि अनुसार और न ही तथ्यों के आधार पर स्वीकार्य है।”
अदालत ने माना कि समीक्षा याचिका पर अंतिम आदेश 2001 में आया, इसलिए निष्पादन याचिका समयसीमा में थी।
