बॉम्बे हाई कोर्ट ने यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम के तहत गिरफ्तार 22 वर्षीय युवक को जमानत दे दी है। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में 15 वर्षीय लड़की को अपने कार्यों की पूर्ण जानकारी थी और वह अपनी मर्जी से आरोपी के साथ लगभग 10 महीने तक रही थी।
जस्टिस मिलिंद जाधव की एकल पीठ ने आदेश पारित करते हुए कहा, “मामले के तथ्यों से यह प्रतीत होता है कि पीड़िता को अपने कार्यों का पूरा अर्थ समझ में आता था और उसने अपनी मर्जी से आवेदक के साथ रहना स्वीकार किया।”
आरोपी अगस्त 2020 में गिरफ्तारी के बाद से तीन वर्षों से अधिक समय से जेल में बंद था। प्राथमिकी लड़की के पिता की शिकायत पर नवी मुंबई में दर्ज की गई थी, जिसमें कहा गया था कि लड़की 8 अगस्त 2020 को घर से निकल गई और वापस नहीं लौटी। बाद में लड़की ने अपने पिता को सूचित किया कि वह उत्तर प्रदेश स्थित आरोपी के गांव में रह रही है।
लगभग दस महीने बाद, मई 2021 में, लड़की ने अपने पिता को बताया कि वह गर्भवती है और आरोपी उससे शादी करने को तैयार नहीं है। इसके बाद लड़की और एक अन्य महिला को उत्तर प्रदेश से वापस लाया गया।
प्रोसेक्यूशन की दलील
प्रोसेक्यूशन ने तर्क दिया कि चूंकि लड़की 18 वर्ष से कम उम्र की थी, इसलिए उसकी सहमति कानून की दृष्टि में अमान्य है और POCSO अधिनियम के तहत अपराध स्वतः सिद्ध होता है। हालांकि, हाई कोर्ट ने पीड़िता के अपने बयानों को महत्वपूर्ण माना।
लड़की ने पुलिस और मेडिकल जांच के दौरान दिए गए बयानों में कहा कि वह 2019 से आरोपी को जानती थी और उनके बीच प्रेम संबंध था। उसने बताया कि वे दोनों दिल्ली समेत कई जगहों पर साथ गए और अंततः उत्तर प्रदेश के गांव में पति-पत्नी की तरह साथ रहने लगे।
कोर्ट ने कहा, “पीड़िता द्वारा पुलिस और मेडिकल जांच में दिए गए बयानों में कोई विरोधाभास नहीं है। इस उम्र में उनके बीच प्रेम संबंध था, यह रिकॉर्ड से स्पष्ट है। पीड़िता अपनी मर्जी से आरोपी के साथ भाग गई और 10 महीने तक उसके साथ रही, जो यह दर्शाता है कि वह अपने फैसले को लेकर स्पष्ट थी, भले ही वह 18 वर्ष से कम थी।”
परिवार की निष्क्रियता और मुकदमे की देरी पर भी टिप्पणी
कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि लड़की की लोकेशन की जानकारी मिलने के बावजूद उसके परिवार ने कोई त्वरित कार्रवाई नहीं की और ट्रायल शुरू होने में भी असामान्य देरी हुई है।
“हालांकि कानून के प्रावधान सख्त हैं, लेकिन न्याय के हित में जमानत देना या न देना कोर्ट का विवेक है, खासकर तब जब चार साल बीत जाने के बावजूद ट्रायल शुरू नहीं हुआ है,” कोर्ट ने कहा।
कोर्ट ने आरोपी को सशर्त जमानत प्रदान की है, जबकि मुकदमा अब भी शुरू नहीं हुआ है।