लखनऊ की एक अदालत ने एक महत्वपूर्ण फैसले में वकील अभय प्रताप को महिला जज को अश्लील संदेश भेजने के मामले में तीन साल की सजा सुनाई है और ₹61,000 का जुर्माना लगाया है। स्टेट ऑफ यूपी बनाम अभय प्रताप नामक इस मामले में विशेष मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (कस्टम) ने उन्हें भारतीय दंड संहिता (IPC) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम (IT एक्ट) की विभिन्न धाराओं के तहत दोषी करार दिया।
अभय प्रताप पर आईपीसी की धारा 354 (महिला की मर्यादा भंग करने के उद्देश्य से हमला या आपराधिक बल का प्रयोग), 354D (पीछा करना), 506 (आपराधिक धमकी), 352 (उकसावे के बिना हमला) और 353 (लोक सेवक को उसके कर्तव्यों के निर्वहन से रोकने के लिए हमला) के तहत आरोप लगाए गए थे। इसके अलावा, उन पर आईटी अधिनियम की धारा 67 (इलेक्ट्रॉनिक रूप से अश्लील सामग्री का प्रकाशन या प्रसारण) के तहत भी मामला दर्ज किया गया था।
अदालत ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि आईपीसी की धारा 354 के तहत अपराध के लिए शारीरिक संपर्क आवश्यक नहीं है। अदालत ने कहा कि डिजिटल माध्यम से की गई लगातार परेशान करने वाली हरकतें और साइबर उत्पीड़न भी किसी महिला की सुरक्षा और गरिमा को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त हैं।

2022 में दर्ज शिकायत में, महाराजगंज के अधिवक्ता अभय प्रताप पर महिला जज का पीछा करने और फेसबुक तथा अन्य माध्यमों से उन्हें अनुचित संदेश भेजने का आरोप लगाया गया था। आरोपों के अनुसार, उत्पीड़न बढ़कर शारीरिक धमकी तक पहुंच गया, जिसमें प्रताप ने कथित रूप से महिला जज के कोर्ट चैंबर के पास जाकर उन्हें डराने की कोशिश की।
सुनवाई के दौरान, अभय प्रताप ने सभी आरोपों से इनकार किया और इसे उनके और पीड़िता के बीच पूर्व विवादों का परिणाम बताया। उन्होंने सबूत एकत्र करने की प्रक्रिया में खामियों की ओर भी इशारा किया और पीड़िता की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए। हालांकि, अदालत ने उनके सभी बचावों को खारिज करते हुए उन्हें दोषी ठहराया।
अदालत ने अपने आदेश में कहा, “अभियुक्त अभय प्रताप ने वादी (पीड़िता) की मर्यादा भंग करने के उद्देश्य से अपराध किया है। उन्होंने एक लोक सेवक को उसके कर्तव्य से डराने और रोकने के लिए फेसबुक मैसेंजर और सीयूजी मोबाइल के माध्यम से अश्लील संदेश भेजे, जिससे पीड़िता का मानसिक उत्पीड़न हुआ। यह अपराध गंभीर प्रकृति का है, विशेष रूप से तब जब पीड़िता एक न्यायिक अधिकारी और अभियुक्त एक अधिवक्ता है।”
इस मामले को पहले महाराजगंज जिला अदालत में दर्ज किया गया था, लेकिन बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे लखनऊ जिला अदालत में स्थानांतरित कर दिया। अदालत का यह फैसला न्यायिक अधिकारियों और महिलाओं की सुरक्षा के प्रति न्यायपालिका की गंभीरता को दर्शाता है।