क्या विधायी कानून अदालत के आदेशों का उल्लंघन करते हुए अवमानना माने जा सकते हैं? सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया

विधायिका की शक्ति और न्यायिक निर्देशों के बीच संतुलन पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि किसी राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानून को केवल इस आधार पर अदालत की अवमानना नहीं माना जा सकता कि वह पूर्व में पारित किसी न्यायिक आदेश का उल्लंघन प्रतीत होता है। न्यायालय ने कहा कि किसी कानून को पहले सक्षम न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जाना आवश्यक है, तभी उसे अवमानना के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने यह निर्णय रिट याचिका (सिविल) संख्या 250/2007, रिट याचिका (फौजदारी) संख्या 119/2007 और अवमानना याचिका (सिविल) संख्या 140/2012 का निपटारा करते हुए सुनाया। यह याचिकाएं नंदिनी सुंदर और अन्य द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य के खिलाफ दायर की गई थीं।

पृष्ठभूमि

वर्ष 2007 में दायर की गई इन याचिकाओं में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सलवा जुडूम और विशेष पुलिस अधिकारियों (SPOs) जैसे नागरिक समूहों को सशस्त्र कर माओवादी विरोधी अभियानों में सम्मिलित करने को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की गई थी। याचिकाकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघनों का आरोप लगाया और अनेक निर्देशों की मांग की, जिनमें सलवा जुडूम को भंग करना, विस्थापित लोगों का पुनर्वास, और राज्य समर्थित समूहों एवं नक्सलियों द्वारा किए गए अपराधों की जांच शामिल थी।

5 जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत निर्देश जारी करते हुए राज्य को SPOs के प्रयोग से रोका और सीबीआई को मओरपाली, ताडमेटला और तिम्मापुरम गांवों में हुई हिंसा तथा मार्च 2011 में स्वामी अग्निवेश पर हुए हमलों की जांच करने का निर्देश दिया था।

इसके पश्चात छत्तीसगढ़ सरकार ने छत्तीसगढ़ सहायक सशस्त्र पुलिस बल अधिनियम, 2011 पारित किया। याचिकाकर्ताओं ने इस अधिनियम को न्यायालय के पूर्व आदेशों का उल्लंघन बताते हुए अवमानना याचिका दाखिल की।

वकीलों की दलीलें

याचिकाकर्ताओं की ओर से:
वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीमती नित्या रामकृष्णन ने दलील दी कि राज्य द्वारा पारित 2011 का अधिनियम न्यायालय के 2011 के निर्णय का स्पष्ट उल्लंघन है और यह अदालत की अवमानना है। उन्होंने यह भी कहा कि बार-बार के आदेशों के बावजूद पूर्ण अनुपालन नहीं हुआ है, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने भी कोई जवाब दाखिल नहीं किया है। अतः कार्यवाही को जारी रखा जाना चाहिए।

प्रत्युत्तर में (उत्तरदाताओं की ओर से):
भारत संघ और छत्तीसगढ़ राज्य की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल श्री के.एम. नटराज ने कहा कि इन याचिकाओं को लंबित रखने का उद्देश्य केवल अनुपालन रिपोर्ट प्राप्त करना था, जो अब दाखिल हो चुकी हैं। अतः अब याचिकाएं या अवमानना याचिका लंबित रखने का कोई औचित्य नहीं है।

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सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और विश्लेषण

न्यायालय ने कहा कि याचिकाओं में की गई प्रार्थनाएं पहले ही उसके 2011 के आदेश में विस्तारपूर्वक संबोधित की जा चुकी हैं। न्यायालय ने मुख्य प्रश्न पर टिप्पणी करते हुए कहा:

“केवल एक अधिनियम का अधिसूचित किया जाना विधायी कार्य का एक रूप है और इसे तब तक अदालत की अवमानना नहीं माना जा सकता जब तक यह स्थापित न हो जाए कि वह कानून संविधान या अन्य विधिक सिद्धांतों के विरुद्ध है।”

न्यायालय ने शक्ति पृथक्करण (separation of powers) के सिद्धांत को दोहराते हुए कहा:

“संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कोई भी कानून मात्र कानून बनाए जाने के आधार पर अदालत की अवमानना नहीं हो सकता।”

कोर्ट ने इंडियन एल्युमिनियम कंपनी बनाम केरल राज्य [(1996) 7 SCC 637] का उल्लेख करते हुए संविधान के अंतर्गत तीनों अंगों के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता को रेखांकित किया।

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पीठ ने यह भी कहा कि यदि किसी अधिनियम की वैधता पर प्रश्न उठाना है, तो उसके लिए उपयुक्त उपाय संविधानिक चुनौती के माध्यम से किया जाना चाहिए, न कि अवमानना याचिका के रूप में।

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले:

  • अवमानना याचिका स्वीकार करने योग्य नहीं है क्योंकि उसमें की गई प्रार्थनाएं वास्तव में रिट याचिकाओं के स्वरूप की हैं।
  • न्यायालय के पूर्व निर्देशों का पर्याप्त अनुपालन हो चुका है, जिनमें रिपोर्ट्स की प्रस्तुति भी शामिल है।
  • मुख्य राहतों पर पहले ही विचार किया जा चुका है, अतः रिट याचिकाओं पर अब कोई और विचार आवश्यक नहीं है।

तदनुसार, न्यायालय ने सभी लंबित रिट याचिकाओं एवं अवमानना याचिका को निस्तारित कर दिया।

मामलों के शीर्षक:

  • रिट याचिका (सिविल) संख्या 250/2007 – नंदिनी सुंदर व अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य
  • रिट याचिका (फौजदारी) संख्या 119/2007
  • अवमानना याचिका (सिविल) संख्या 140/2012

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