सुप्रीम कोर्ट ने 28 अक्टूबर, 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसले में गवाह को धमकाने के अपराध से संबंधित प्रक्रियात्मक कानून पर चले आ रहे भ्रम को समाप्त कर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति को झूठी गवाही देने के लिए धमकाना, जो भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 195A के तहत एक अपराध है, एक संज्ञेय अपराध (cognizable offence) है। इसलिए, पुलिस को सीधे FIR दर्ज करने और इसकी जांच करने का अधिकार है।
जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस आलोक अराधे की बेंच ने यह फैसला सुनाया। बेंच ने कहा कि झूठी गवाही से संबंधित अन्य अपराधों के लिए दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 195(1)(b)(i) के तहत अदालत से लिखित शिकायत की जो विशेष प्रक्रिया अनिवार्य है, वह IPC की धारा 195A पर लागू नहीं होती।
यह निर्णय केरल राज्य और केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) द्वारा दायर अपीलों पर आया है। इन अपीलों में क्रमशः केरल और कर्नाटक हाईकोर्ट के उन आदेशों को चुनौती दी गई थी, जिन्होंने प्रक्रियात्मक आधार पर IPC धारा 195A के तहत शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया था।
पृष्ठभूमि
सुप्रीम कोर्ट ने इस कानूनी पहेली को संबोधित किया, जो खुद जस्टिस संजय कुमार (जिन्होंने फैसला लिखा) के शब्दों में, कानून के “मसौदे में ढिलाई” (laxity in such draftsmanship) से उत्पन्न हुई थी।
- केरल का मामला (केरल राज्य बनाम सुनी @ सुनील): कोराट्टी पुलिस स्टेशन ने एक हत्या के मामले में सरकारी गवाह (approver) बने व्यक्ति को झूठी गवाही देने के लिए गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी देने के आरोप में IPC धारा 195A के तहत FIR दर्ज की थी। केरल हाईकोर्ट ने 04.04.2023 के अपने आदेश में आरोपी सुनी @ सुनील को यह मानते हुए जमानत दे दी कि पुलिस FIR दर्ज नहीं कर सकती थी और इसके लिए CrPC की धारा 195(1)(b)(i) (अदालत द्वारा शिकायत) के तहत प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए था। केरल राज्य ने इस आदेश के खिलाफ अपील की।
- कर्नाटक के मामले (CBI की अपीलें): एक अलग हत्या के मामले की जांच में, CBI ने पाया कि गवाहों को अदालत में उनकी गवाही से पहले अभियुक्तों द्वारा डराया-धमकाया गया था, जिसके परिणामस्वरूप वे अपने बयानों से मुकर गए (hostile हो गए)। CBI ने यह मामला धारवाड़ के प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के संज्ञान में लाया, जिसे CrPC की धारा 195A के तहत शिकायत माना गया और अदालत ने 04.12.2020 को इसका संज्ञान लिया। कर्नाटक हाईकोर्ट ने 22.01.2025 के आदेशों में, यह मानते हुए कि CrPC 195(1)(b)(i) की अनिवार्य प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, संज्ञान को रद्द कर दिया और एक अभियुक्त को आरोपमुक्त कर दिया। CBI ने इन आदेशों के खिलाफ अपील की।
कानूनी पेंच
फैसले में उस मूल मुद्दे को रेखांकित किया गया जिसके कारण यह भ्रम था:
- IPC में धारा 195A को 2006 में जोड़ा गया और साथ ही CrPC की पहली अनुसूची में इसे ‘संज्ञेय अपराध’ के रूप में वर्गीकृत किया गया।
- हालांकि, CrPC की धारा 195(1)(b)(i), जो अदालत को “धारा 193 से 196 तक (दोनों सहित)” के अपराधों का संज्ञान लेने से रोकती है, जब तक कि संबंधित अदालत द्वारा लिखित शिकायत न की गई हो, उसमें संशोधन नहीं किया गया। धारा 195A संख्यात्मक रूप से 193 और 196 के बीच आती है, लेकिन इसे स्पष्ट रूप से इस बाध्यता से बाहर नहीं रखा गया।
- इससे हाईकोर्ट के बीच परस्पर विरोधी निर्णय आए। दिल्ली, मध्य प्रदेश और कलकत्ता हाईकोर्ट ने माना कि FIR की जा सकती है, जबकि गौहाटी हाईकोर्ट और मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की अन्य बेंचों ने माना कि विशेष प्रक्रिया (कोर्ट की शिकायत) अनिवार्य है।
- इसके अलावा, 2009 में CrPC में धारा 195A जोड़ी गई, जिसने “एक गवाह या किसी अन्य व्यक्ति” को इस अपराध के लिए शिकायत दर्ज करने की अनुमति दी, जिसने सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, “स्पष्ट रूप से विरोधाभासी” (demonstrably dichotomous) प्रक्रिया बना दी।
अभियुक्तों की दलीलें
प्रतिवादियों (अभियुक्तों) ने तर्क दिया कि इस अपराध को “दो हिस्सों में बांटा जाना चाहिए”: यदि धमकी अदालत की कार्यवाही “में या उसके संबंध में” दी गई, तो CrPC 195(1)(b)(i) (कोर्ट शिकायत) लागू होनी चाहिए। यदि यह इस संदर्भ के बाहर हुई, तो CrPC 195A (गवाह शिकायत) लागू होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को यह कहते हुए खारिज कर दिया, “हमें इस तर्क में कोई योग्यता नहीं दिखती क्योंकि यह व्यावहारिक रूप से हमें प्रावधान को उसके वास्तविक पाठ के विपरीत फिर से लिखने की आवश्यकता होगी।”
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कानून की “सामंजस्यपूर्ण व्याख्या” (harmonious construction) का विकल्प चुना। कोर्ट ने माना कि मसौदा तैयार करने में खामियों के बावजूद विधायिका का इरादा स्पष्ट था।
कोर्ट ने माना कि IPC धारा 195A को झूठी गवाही (धारा 193) या झूठे सबूत गढ़ने (धारा 194) से “एक विशिष्ट और अलग अपराध के रूप में संकल्पित” (conceptualized as an offence distinct and different) किया गया था।
जस्टिस कुमार ने कहा कि गवाह को धमकी अक्सर मुकदमे से बहुत पहले दी जाती है। फैसले में कहा गया है: “गवाह को धमकी उसके अदालत आने से बहुत पहले दी जा सकती है… शायद यही कारण है कि इस अपराध को संज्ञेय बनाया गया ताकि धमकी पाने वाला गवाह या अन्य व्यक्ति CrPC की धारा 154 के तहत संबंधित पुलिस अधिकारी को मौखिक जानकारी देकर… या CrPC की धारा 195A के तहत एक न्यायिक मजिस्ट्रेट को शिकायत करके तत्काल कदम उठा सके।”
कोर्ट ने पाया कि एक धमकी-प्राप्त गवाह को पहले उस अदालत में जाने के लिए मजबूर करना, जहाँ कार्यवाही लंबित है, और फिर धारा 340 CrPC के तहत जांच शुरू करवाना, “पूरी प्रक्रिया को पंगु और बाधित” (cripple and hamper) कर देगा।
दो उपलब्ध उपायों को स्पष्ट करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने माना:
- संज्ञेय अपराध के रूप में (FIR): “यह एक निर्विवाद तथ्य है कि IPC की धारा 195A के तहत अपराध एक संज्ञेय अपराध है और एक बार ऐसा होने पर, CrPC की धारा 154 और 156 के तहत इस संबंध में कार्रवाई करने की पुलिस की शक्ति पर संदेह नहीं किया जा सकता है।”
- गवाह की शिकायत के रूप में (CrPC 195A): गवाह को शिकायत दर्ज करने की अनुमति देने वाला प्रावधान (CrPC 195A) “केवल एक अतिरिक्त उपाय” (only by way of an additional remedy) है। उस धारा में “may” (कर सकता है) शब्द का उपयोग यह दर्शाता है कि गवाह के लिए केवल मजिस्ट्रेट के पास जाना अनिवार्य नहीं है।
अंतिम फैसला
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि केरल और कर्नाटक हाईकोर्ट द्वारा की गई व्याख्या “त्रुटिपूर्ण और अस्थिर” (erroneous and unsustainable) थी, सुप्रीम कोर्ट ने दोनों अपीलों को स्वीकार कर लिया।
- केरल मामले में, हाईकोर्ट के 04.04.2023 के आदेश को रद्द कर दिया गया और सुनी @ सुनील को दी गई जमानत रद्द कर दी गई। उसे “दो सप्ताह के भीतर ट्रायल कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण” करने का निर्देश दिया गया।
- कर्नाटक के मामलों में, हाईकोर्ट के 22.01.2025 के आदेशों को रद्द कर दिया गया। नतीजतन, मजिस्ट्रेट का संज्ञान लेने का आदेश (04.12.2020) और निचली अदालत द्वारा अभियुक्त की आरोपमुक्ति याचिका को खारिज करने का फैसला बहाल हो गया, जिससे अभियुक्तों के खिलाफ कार्यवाही फिर से शुरू हो गई।




