सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि कानून का पालन अनिवार्य है, भले ही उसके परिणाम कठोर क्यों न हों। शीर्ष अदालत ने केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के एक कांस्टेबल की बर्खास्तगी को बहाल रखा है, जिसे अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते हुए दूसरी शादी करने के आरोप में सेवा से निकाल दिया गया था।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पीठ ने हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें बर्खास्तगी की सजा को “बहुत कठोर” मानते हुए कम सजा देने का निर्देश दिया गया था। कोर्ट ने लैटिन कहावत “Dura lex sed lex” (कानून कठोर है, लेकिन यह कानून है) का हवाला देते हुए कहा कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग करते समय अदालतों को अनुशासनात्मक प्राधिकारी (Disciplinary Authority) के फैसले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, जब तक कि वह पूरी तरह से मनमाना न हो।
मामले की पृष्ठभूमि
प्रतिवादी प्रणब कुमार नाथ 22 जुलाई 2006 को CISF में कांस्टेबल के पद पर भर्ती हुए थे। उनकी पत्नी, श्रीमती चंदना नाथ ने विभाग को लिखित शिकायत दी कि उनके पति ने ओडिशा के मुंडली में 3rd NDRF बटालियन में तैनाती के दौरान 14 मार्च 2016 को प्रार्थना दास नामक महिला से दूसरी शादी कर ली है।
इस शिकायत के आधार पर 7 जुलाई 2016 को प्रणब कुमार नाथ के खिलाफ आरोप पत्र (Charge Memorandum) जारी किया गया। उन पर दो मुख्य आरोप लगाए गए:
- आरोप 1: पहली पत्नी के जीवित रहते हुए दूसरी महिला से विवाह करना, जो CISF नियम, 2001 के नियम-18(b) का उल्लंघन है।
- आरोप 2: अपनी पत्नी और नाबालिग बेटी की उपेक्षा करना, जो एक अनुशासित बल के सदस्य के लिए गंभीर कदाचार है।
जांच अधिकारी ने 19 मई 2017 को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें आरोप साबित पाए गए। इसके बाद, वरिष्ठ कमांडेंट (अनुशासनात्मक प्राधिकारी) ने 1 जुलाई 2017 को उन्हें सेवा से बर्खास्त (Dismissal) कर दिया। अपीलीय और पुनरीक्षण अधिकारियों ने भी इस सजा को बरकरार रखा।
हाईकोर्ट का हस्तक्षेप
बर्खास्तगी के आदेश को चुनौती देते हुए प्रणब कुमार नाथ ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। एकल न्यायाधीश (Single Judge) ने माना कि बर्खास्तगी के बजाय ‘सेवा से हटाना’ (Removal) अधिक उपयुक्त होगा और मामले को वापस भेज दिया।
इसके बाद, केंद्र सरकार (यूनियन ऑफ इंडिया) ने खंडपीठ (Division Bench) में अपील की। खंडपीठ ने भी यह माना कि हालांकि दूसरी शादी करना अनुशासनहीनता है, लेकिन यह इतना गंभीर कदाचार नहीं है कि इसके लिए बर्खास्तगी जैसी सजा दी जाए। हाईकोर्ट का तर्क था कि इससे कर्मचारी और उसके परिवार पर आर्थिक संकट आएगा, जो अपराध की तुलना में बहुत अधिक है। इसलिए, हाईकोर्ट ने अधिकारियों को कम सजा देने का निर्देश दिया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए CISF नियम, 2001 के नियम 18 पर गौर किया। यह नियम स्पष्ट करता है कि कोई भी व्यक्ति जिसकी पत्नी/पति जीवित है, यदि वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह करता है, तो वह बल में नियुक्ति के लिए अयोग्य होगा।
पीठ ने अनुशासन के महत्व पर जोर देते हुए कहा:
“यह सामान्य समझ की बात है कि चाहे निजी जीवन हो या पेशेवर, यदि किसी कृत्य में घरेलू कलह, वित्तीय अस्थिरता या जिम्मेदारियों के बंटवारे की संभावना हो, तो उसका सीधा असर परिचालन क्षमता (Operational Efficacy) पर पड़ सकता है, क्योंकि मानसिक स्थिरता अत्यंत महत्वपूर्ण है।”
न्यायिक समीक्षा का दायरा
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट की शक्ति केवल ‘न्यायिक समीक्षा’ तक सीमित है, और वह अपीलीय अदालत की तरह कार्य नहीं कर सकता। कोर्ट ने बी.सी. चतुर्वेदी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1995) और यूनियन ऑफ इंडिया बनाम पी. गुणसेकरन (2015) जैसे पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि:
- हाईकोर्ट सबूतों का पुनर्मूल्यांकन (Re-appreciation) नहीं कर सकता।
- जब तक सजा “अंतरात्मा को झकझोरने वाली” (Shocking to the conscience) न हो, तब तक सजा की मात्रा में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।
- विभागीय प्राधिकारी ही तथ्यों का एकमात्र न्यायाधीश होता है।
“Dura Lex Sed Lex” का सिद्धांत
कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट (एकल पीठ और खंडपीठ दोनों) ने अपनी सीमाओं से बाहर जाकर फैसला सुनाया। पीठ ने कहा कि नियम 18-B दंडात्मक परिणाम निर्धारित करता है और कानून का यह स्थापित सिद्धांत है कि ऐसे नियमों की व्याख्या सख्ती से की जानी चाहिए।
लैटिन मैक्सिम “Dura lex sed lex” का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“कानून का उल्लंघन करने पर होने वाली असुविधा या अप्रिय परिणाम, कानून के प्रावधानों को कम नहीं कर सकते।”
चूंकि प्रतिवादी ने अनुशासनात्मक कार्यवाही की प्रक्रिया में किसी त्रुटि का आरोप नहीं लगाया था और दूसरी शादी का तथ्य स्थापित था, इसलिए कोर्ट ने माना कि सजा में कोई नरमी नहीं बरती जा सकती।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की अपील को स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया। कोर्ट ने अनुशासनात्मक प्राधिकारी द्वारा दी गई ‘सेवा से बर्खास्तगी’ की सजा को बहाल कर दिया।
केस विवरण
- केस टाइटल: यूनियन ऑफ इंडिया व अन्य बनाम प्रणब कुमार नाथ
- केस नंबर: सिविल अपील संख्या 15068 ऑफ 2025 (@ एसएलपी (सिविल) नंबर 18702 ऑफ 2023)
- पीठ: जस्टिस संजय करोल और जस्टिस विपुल एम. पंचोली
- साइटेशन: 2025 INSC 1479

