छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने नेक्रोफीलिया से जुड़े अपराधों को संबोधित करने के लिए विधायी सुधारों की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा है कि व्यक्तियों की गरिमा मृत्यु से परे भी है। न्यायालय की यह टिप्पणी 10 दिसंबर, 2024 को आपराधिक अपील संख्या 1920/2023, 142/2024 और ACQA संख्या 215/2024 में दिए गए फैसले में आई, जो नौ वर्षीय लड़की के साथ क्रूर बलात्कार और हत्या और उसके बाद उसके शव पर यौन हमले से संबंधित थी।
मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु की पीठ ने मुख्य आरोपी नितिन यादव की आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखी, लेकिन फैसला सुनाया कि दूसरे आरोपी नीलकंठ उर्फ नीलू नागेश को आईपीसी की धारा 376 के तहत बलात्कार का दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि भारतीय कानून वर्तमान में नेक्रोफीलिया को अपराध के रूप में मान्यता नहीं देता है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 19 अक्टूबर, 2018 को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में हुई एक घटना से जुड़ा है। अनुसूचित जाति समुदाय से ताल्लुक रखने वाली नौ वर्षीय पीड़िता का नितिन यादव ने यौन उत्पीड़न किया और गला घोंटकर उसकी हत्या कर दी। अपराध यहीं खत्म नहीं हुआ – यादव और उसके साथी नीलकंठ ने उसके शव को पास की एक पहाड़ी पर ले जाकर दफना दिया।
ट्रायल कोर्ट ने नितिन यादव को आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 376 (3) (नाबालिग से बलात्कार), 363 (अपहरण) और 201 (साक्ष्यों को गायब करना) के साथ-साथ POCSO अधिनियम और SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धाराओं के तहत दोषी ठहराया। नीलकंठ को केवल धारा 201 आईपीसी के तहत शव को ठिकाने लगाने में सहायता करने के लिए दोषी ठहराया गया था, जिसके कारण पीड़िता की मां ने बलात्कार और हत्या के आरोपों से उसे बरी करने के फैसले को चुनौती देते हुए अपील दायर की।
अदालत की टिप्पणियां
अपील को खारिज करते हुए, हाईकोर्ट ने नेक्रोफीलिया को दंडित करने के लिए भारतीय कानून में विशिष्ट प्रावधानों की कमी पर अफसोस जताया। अपने फैसले में, अदालत ने कहा:
“सम्मान और उचित व्यवहार न केवल जीवित व्यक्ति के लिए उपलब्ध है, बल्कि उसके मृत शरीर के लिए भी उपलब्ध है। प्रत्येक मृत व्यक्ति सम्मानजनक व्यवहार का हकदार है, और नेक्रोफीलिया जैसे कृत्य इन अधिकारों का घोर उल्लंघन करते हैं।”
अदालत ने अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक सुरक्षा का हवाला दिया, जो मृत्यु के बाद भी सम्मान के अधिकार की गारंटी देता है, जैसा कि पंडित परमानंद कटारा बनाम भारत संघ (1995) जैसे निर्णयों में मान्यता प्राप्त है। हालांकि, इसने स्वीकार किया कि धारा 375 आईपीसी के तहत बलात्कार की मौजूदा कानूनी परिभाषाएं केवल जीवित व्यक्तियों के खिलाफ किए गए कृत्यों पर लागू होती हैं।
मामले में मुख्य साक्ष्य
अभियोजन पक्ष ने फोरेंसिक और परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर एक मजबूत मामला बनाया:
1. पोस्टमॉर्टम निष्कर्ष: मेडिकल जांच से पता चला कि पीड़िता की मौत से पहले उसका यौन उत्पीड़न किया गया था। हाइमन फटी हुई थी और गर्दन पर गला घोंटने के निशान स्पष्ट थे।
2. डीएनए साक्ष्य: पीड़िता से एकत्र किए गए स्वाब के फोरेंसिक विश्लेषण ने दोनों आरोपियों की संलिप्तता की पुष्टि की।
3. स्वीकारोक्ति: अपने बयानों में, दोनों आरोपियों ने अपराध में अपनी भूमिका स्वीकार की। नीलकंठ ने “नियंत्रण खोने” के कारण शव का यौन उत्पीड़न करने की बात कबूल की।
4. सामग्री बरामदगी: पीड़िता की पायल, कपड़े और उसके शव को दफनाने के लिए इस्तेमाल की गई कुदाल सहित अन्य सामान आरोपियों द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर बरामद किए गए।
कानूनी निष्कर्ष
हाई कोर्ट ने नितिन यादव की दोषसिद्धि और कई आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा, यह फैसला सुनाया कि उसके खिलाफ सबूत अकाट्य थे। दूसरी ओर, न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के इस तर्क से सहमति जताई कि नीलकंठ को आईपीसी की धारा 376 के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि कानून नेक्रोफीलिया को अपराध नहीं मानता। पीठ ने स्पष्ट किया कि ऐसे कृत्य नैतिक रूप से निंदनीय हैं, लेकिन स्पष्ट कानूनी प्रावधानों की अनुपस्थिति मौजूदा कानूनों के तहत सजा को रोकती है।
न्यायालय ने कहा:
“जबकि कानून चुप रहता है, ऐसे जघन्य कृत्य सामूहिक विवेक को झकझोरते हैं और उस मौलिक गरिमा को कमजोर करते हैं जिसका हर इंसान, चाहे वह जीवित हो या मृत, हकदार है।”