दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि जब तक ठोस साक्ष्य प्रस्तुत न किए जाएं, तब तक बैंकों पर वित्तीय अनियमितता के आसान या अटकलों पर आधारित आरोप अदालतों में नहीं सुने जाने चाहिए। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि बैंक सद्भावना के साथ काम कर रहे हों, तो उन्हें अपने आर्थिक निर्णयों की व्यावहारिकता के लिए न्यायपालिका के प्रति जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता।
न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर और न्यायमूर्ति अजय दिगपॉल की खंडपीठ ने यह टिप्पणी उस जनहित याचिका को खारिज करते हुए की जो इन्फ्रास्ट्रक्चर वॉचडॉग नामक एनजीओ ने दायर की थी। याचिका में एशियन होटल्स (नॉर्थ) प्राइवेट लिमिटेड और दो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों—पंजाब नेशनल बैंक (PNB) और बैंक ऑफ महाराष्ट्र (BoM)—के बीच हुए वन-टाइम सेटलमेंट (OTS) समझौते में हयात रीजेंसी होटल के कथित अवमूल्यन की सीबीआई और सीवीसी जांच की मांग की गई थी।
अदालत ने कहा, “बैंकिंग क्षेत्र राष्ट्र की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। न्यायालय का यह दायित्व है कि तथ्यों को समझने के लिए बैंकों और संबंधित कंपनियों से जवाब मांगे, इससे पहले कि वह किसी जांच की प्रक्रिया शुरू करे।”
पीठ ने आगे कहा, “बैंकों पर वित्तीय गड़बड़ी के सहज आरोप अदालतों में नहीं सुने जाने चाहिए। यदि बैंक सद्भावना से कार्य कर रहे हैं, तो उन्हें अपने आर्थिक निर्णयों की उपयुक्तता पर न्यायपालिका के प्रति जवाबदेह नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि ठोस साक्ष्य इसके विपरीत संकेत न दें।”
अदालत ने कहा कि इस मामले में नोटिस जारी करने तक का कोई आधार नहीं था। याचिका “अंधेरे में छोड़े गए तीर की तरह थी, जो केवल अनुमानों और अटकलों पर आधारित” थी।
एनजीओ का दावा था कि होटल के मूल्यांकन को जानबूझकर कम आंका गया, जिससे बैंकों को भारी हेयरकट (Haircut — किसी संपत्ति के बाजार मूल्य में कमी) का नुकसान हुआ।
इस पर न्यायालय ने कहा कि हर व्यावसायिक सौदे में लाभ कमाना बैंकों का कानूनी दायित्व नहीं है। जो अपेक्षित है, वह यह कि बैंक उचित जांच-पड़ताल और सतर्कता का पालन करें।
“एक बार जब यह प्रक्रिया पूरी कर ली जाती है, तो किसी सौदे को यह कहकर अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह वित्तीय रूप से लाभदायक नहीं था या कि किसी और विकल्प से नुकसान टाला जा सकता था,” अदालत ने कहा।
अदालत ने अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल चेतन शर्मा की दलील से सहमति जताई कि ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करना बैंकिंग व्यवस्था को अस्थिर कर सकता है और वित्तीय संस्थानों को ईमानदार वाणिज्यिक लेन-देन करने से हतोत्साहित करेगा।
अदालत ने यह भी चेताया कि इस तरह की जनहित याचिकाएँ “कथित सार्वजनिक हित के नाम पर ब्लैकमेल का हथियार” बन सकती हैं।
“हम अपने मन में स्पष्ट हैं कि ऐसे प्रयासों को शुरुआत में ही रोक देना चाहिए,” पीठ ने कहा।
न्यायालय ने कहा कि किसी कंपनी के मामलों की सीबीआई जांच की मांग पर नोटिस जारी करना भी एक गंभीर कदम है, क्योंकि इससे कंपनी की प्रतिष्ठा और उसका व्यावसायिक स्थान देश-विदेश में प्रभावित हो सकता है।
पीठ ने टिप्पणी की, “आज की वर्चुअल दुनिया में तिल का ताड़ बनते देर नहीं लगती। वर्षों में बनी प्रतिष्ठा एक पल में ढह जाती है।”
अंत में अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता एनजीओ ने केवल एक मूल्यांकन रिपोर्ट के आधार पर यह मान लिया कि होटल का मूल्यांकन कम किया गया और बैंक उसमें शामिल थे, जबकि इस दावे का कोई ठोस सबूत नहीं था।
हाईकोर्ट ने याचिका को प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज कर दिया और यह स्पष्ट कर दिया कि केवल अनुमान या अधूरी जानकारी के आधार पर आपराधिक या जांच की प्रक्रिया शुरू नहीं की जा सकती।

                                    
 
        


