दिल्ली हाई कोर्ट ने बुधवार को भारत में जन्मीं ब्रिटिश शिक्षाविद् निताशा कौल की उस याचिका पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है, जिसमें उन्होंने अपने ओवरसीज़ सिटिज़नशिप ऑफ़ इंडिया (OCI) को रद्द करने और भारत में प्रवेश पर रोक लगाने (ब्लैकलिस्टिंग) के आदेश को चुनौती दी है।
न्यायमूर्ति सचिन दत्ता ने केंद्र को नोटिस जारी करते हुए मुख्य याचिका और उस अंतरिम आवेदन पर भी जवाब मांगा है, जिसमें कौल ने OCI रद्दीकरण आदेश पर स्थगन (स्टे) की मांग की है।
अंतरिम राहत के तौर पर कौल ने तीन सप्ताह के लिए भारत आने की अनुमति मांगी है ताकि वह अपनी वृद्ध और बीमार मां से मिल सकें।
अदालत ने इस मामले की अगली सुनवाई जनवरी के लिए सूचीबद्ध की है।
कौल, जो यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्टमिंस्टर में अंतरराष्ट्रीय संबंधों की प्रोफेसर हैं, ने कहा है कि उन्हें उनके अकादमिक लेखन और सार्वजनिक वक्तव्यों के कारण “बार-बार निशाना बनाया गया” है। उनका कहना है कि अधिकारियों ने कोई ठोस आरोप या प्रमाण नहीं दिए और बिना कारण बताए गैर-विस्तृत (नॉन-स्पीकिंग) आदेश पारित किए।
उनकी ओर से अधिवक्ता आदिल सिंह बोपराई द्वारा दायर याचिका में कहा गया है:
“दिनांक 6 मार्च 2025 का OCI रद्दीकरण आदेश और कथित ब्लैकलिस्टिंग आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों तथा नागरिकता अधिनियम की धारा 7 और विदेशियों संबंधी कानून के तहत निहित प्रक्रिया-सम्मतता, पारदर्शिता और अनुपातिकता के अधिकारों के प्रतिकूल है।”
कौल ने यह भी बताया कि उन्हें अपनी 72 वर्षीय बीमार मां, जो दिल्ली में रहती हैं और लंबे समय से स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही हैं, से मिलने से रोका जा रहा है।
याचिका में उल्लेखित रिपोर्टों के अनुसार, फरवरी 2024 में कर्नाटक सरकार ने कौल को एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। वैध ब्रिटिश पासपोर्ट और OCI कार्ड होने के बावजूद उन्हें बेंगलुरु हवाईअड्डे पर प्रवेश से रोक दिया गया, करीब 24 घंटे तक एक सेल में रखा गया और बाद में देश से बाहर भेज दिया गया।
मई 2025 में केंद्र सरकार ने उनका OCI स्टेटस रद्द कर दिया। रद्दीकरण पत्र में उन पर “भारत-विरोधी गतिविधियों” में शामिल होने और अपने लेखन एवं भाषणों के माध्यम से भारत की संप्रभुता को निशाना बनाने का आरोप लगाया गया।
याचिका में कहा गया है कि अधिकारियों की कार्रवाई “मनमानी और हठधर्मिता” दर्शाती है और “एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाज में विधि के शासन की पूर्ण अवहेलना” को प्रतिबिंबित करती है।




