दिल्ली हाईकोर्ट ने निष्पादन आदेशों को चुनौती देने वाली ‘तुच्छ’ याचिका को ₹25,000 के जुर्माने के साथ किया खारिज; गिरफ्तारी वारंट बरकरार

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक ‘जजमेंट डेटर’ (निर्णय ऋणी) द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें निष्पादन न्यायालय (Execution Court) के कई आदेशों को चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने इस मुकदमेबाजी को “पूर्ण रूप से तुच्छ” और “दुर्भावनापूर्ण” (Mala Fide) करार दिया है। जस्टिस गिरीश कठपालिया ने याचिकाकर्ता के खिलाफ जारी गिरफ्तारी वारंट और कब्जा वारंट को बरकरार रखते हुए उन पर 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया है।

वकील अहमद बनाम कमलेश गुप्ता (CM(M) 2915/2024) के मामले में, हाईकोर्ट ने निष्पादन न्यायालय द्वारा 17 मई 2022, 29 अप्रैल 2024 और 31 मई 2024 को पारित आदेशों के खिलाफ चुनौती पर सुनवाई की। हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसलों में कोई त्रुटि नहीं पाई, जिसमें ताले तोड़ने के लिए पुलिस सहायता के निर्देश और निर्णय ऋणी द्वारा असहयोग व प्रतिरोध के कारण गिरफ्तारी वारंट जारी करना शामिल था।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता, वकील अहमद (निर्णय ऋणी) ने निष्पादन न्यायालय के तीन विशिष्ट आदेशों को चुनौती देते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था:

  • 17.05.2022 का आदेश: निष्पादन न्यायालय ने याचिकाकर्ता की आपत्तियों को खारिज कर दिया था और किराए की संपत्ति के लिए कब्जा वारंट (Warrants of Possession) जारी करने का निर्देश दिया था। साथ ही, बकाया ‘मेस्ने प्रॉफिट’ (Mesne Profits) की वसूली के लिए चल संपत्ति की कुर्की के वारंट भी जारी किए थे।
  • 29.04.2024 का आदेश: कोर्ट ने 17,44,363 रुपये की बकाया राशि दर्ज की। याचिकाकर्ता की इस दलील को खारिज करते हुए कि कब्जा पहले ही सौंपा जा चुका है, कोर्ट ने “याचिकाकर्ता/निर्णय ऋणी की ओर से आक्रामक प्रतिरोध” को देखते हुए परिसर के ताले तोड़ने के लिए पुलिस सहायता का निर्देश दिया।
  • 31.05.2024 का आदेश: निष्पादन न्यायालय ने प्रतिवादी (डिक्री धारक) के आवेदन को स्वीकार किया और याचिकाकर्ता के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी करने का निर्देश दिया।
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प्रारंभ में, याचिकाकर्ता ने 2 जून 2023 के एक आदेश को भी चुनौती दी थी, लेकिन 15 जुलाई 2024 को उस चुनौती को वापस ले लिया गया।

पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ता के वकील ने हाईकोर्ट के समक्ष केवल एक ही तर्क प्रस्तुत किया। उन्होंने दावा किया कि याचिकाकर्ता ने “अक्टूबर 2014 में ही प्रतिवादी/डिक्री धारक को संपत्ति का कब्जा सौंप दिया था,” जब यह मुकदमा निचली अदालत में लंबित था।

इसके जवाब में, प्रतिवादी कमलेश गुप्ता के वकील ने विवादित आदेशों का समर्थन किया। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता “विभिन्न स्तरों पर अदालतों को गुमराह करने की कोशिश कर रहा है।”

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कोर्ट का विश्लेषण और टिप्पणियाँ

जस्टिस गिरीश कठपालिया ने कब्जा सौंपने के याचिकाकर्ता के दावे की बारीकी से जांच की। कोर्ट ने नोट किया कि एक विशिष्ट प्रश्न के उत्तर में, याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि “उनके पास कब्जा सौंपने का कोई सबूत नहीं है।”

कोर्ट ने आगे यह भी देखा कि कब्जा वापस करने की दलील को न तो डिक्री पारित करने वाली ट्रायल कोर्ट ने स्वीकार किया था और न ही डिक्री की पुष्टि करने वाली अपीलीय अदालत ने। इसके अलावा, याचिकाकर्ता द्वारा दायर की गई दूसरी अपील भी “पैरवी न करने के कारण खारिज हो गई थी और उसे बहाल करने की मांग नहीं की गई थी।”

कोर्ट ने ‘एग्रीमेंट टू सेल’ (बिक्री के समझौते) के विशिष्ट पालन के लिए लंबित मुकदमे के बारे में याचिकाकर्ता की दलील पर भी गौर किया। यह सामने आया कि याचिकाकर्ता ने उस मुकदमे में अंतरिम निषेधाज्ञा (Interim Injunction) के लिए अपना आवेदन वापस ले लिया था। कोर्ट ने टिप्पणी की, “उस वापसी के बाद एक साल बीत जाने के बावजूद, कोई नया आवेदन दायर नहीं किया गया है।”

जस्टिस कठपालिया ने उसी दिन सूचीबद्ध एक समानांतर कार्यवाही (CM(M) 446/2023) का भी संज्ञान लिया, जो याचिकाकर्ता के भाई के कानूनी प्रतिनिधियों द्वारा उसी डिक्री के संबंध में दायर की गई थी। उस याचिका को भी आंशिक सुनवाई के बाद वापस ले लिया गया था।

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इन तथ्यों से निष्कर्ष निकालते हुए, कोर्ट ने निम्नलिखित टिप्पणी की:

“उपरोक्त परिदृश्य मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं छोड़ता है कि याचिकाकर्ता/निर्णय ऋणी किसी तरह कार्यवाही को लंबा खींचकर डिक्री के निष्पादन का विरोध करने की कोशिश कर रहा है, ताकि प्रतिवादी/डिक्री धारक हताशा में मुकदमेबाजी छोड़ दे।”

निर्णय

हाईकोर्ट ने माना कि “चुनौती दिए गए किसी भी आदेश में कोई भी कमी नहीं है।” जस्टिस कठपालिया ने फैसला सुनाया कि याचिका न केवल पूरी तरह से योग्यता से रहित (devoid of merits) है, बल्कि यह “पूर्ण रूप से तुच्छ और दुर्भावनापूर्ण” (absolutely frivolous and brought with mala fide) है।

नतीजतन, याचिका और उसके साथ संलग्न आवेदन को खारिज कर दिया गया। कोर्ट ने याचिकाकर्ता पर 25,000 रुपये का जुर्माना लगाया और निर्देश दिया कि यह राशि एक सप्ताह के भीतर प्रतिवादी/डिक्री धारक को भुगतान की जाए।

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