सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि यदि शिकायत में कोई ऐसी त्रुटि है जिसे सुधारा जा सकता है और उससे आरोपी को कोई पूर्वग्रह नहीं होता, तो मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत का संज्ञान लेने के बाद भी उसमें संशोधन किया जा सकता है। न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन की पीठ ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के उस आदेश को निरस्त कर दिया जिसमें एक चेक बाउंस मामले में शिकायत में संशोधन की अनुमति नहीं दी गई थी। कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को बहाल कर दिया जिसमें संशोधन को मंजूरी दी गई थी।
पीठ ने यह स्पष्ट किया कि प्रक्रिया का उद्देश्य न्याय में बाधा डालना नहीं, बल्कि उसकी सहायता करना है। न्यायमूर्ति के. वी. विश्वनाथन ने कहा:
“ऐसा कहा जाता है कि प्रक्रिया न्याय की दासी है, स्वामिनी नहीं। लेकिन इस मामले में इस सिद्धांत का पालन नहीं किया गया।”

मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला बंसल मिल्क चिलिंग सेंटर द्वारा राणा मिल्क फूड प्राइवेट लिमिटेड व अन्य के खिलाफ दायर आपराधिक शिकायत से संबंधित है, जो नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 138 के तहत 8 अप्रैल 2022 को दायर की गई थी। यह शिकायत ₹14 लाख के तीन चेकों के अनादरण (डिशॉनर) को लेकर दायर की गई थी।
मूल शिकायत में कहा गया था कि चेक “देसी घी (दुग्ध उत्पाद)” की खरीद के लिए दिए गए थे। बाद में, जब आरोपी को समन जारी हो गया लेकिन शिकायतकर्ता की जिरह अभी बाकी थी, तब शिकायतकर्ता ने शिकायत में संशोधन का आवेदन दिया। उनका कहना था कि टाइपिंग की गलती से “देसी घी” लिखा गया, जबकि असल में उत्पाद “दूध” था।
ट्रायल कोर्ट ने 2 सितंबर 2023 को यह संशोधन स्वीकार कर लिया। कोर्ट ने कहा कि मामला आरंभिक चरण में है, शिकायतकर्ता की जिरह नहीं हुई है और इससे आरोपी को कोई नुकसान नहीं होगा।
इस आदेश को आरोपी पक्ष ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट में चुनौती दी। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने उनकी याचिका स्वीकार कर ली और कहा कि यह मात्र टाइपिंग की गलती नहीं है, बल्कि इससे शिकायत की प्रकृति ही बदल जाती है। हाईकोर्ट ने यह भी माना कि “दूध” पर जीएसटी नहीं लगता, इसलिए यह संशोधन जीएसटी देयता से बचने के लिए किया गया हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट में पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री चृतार्थ पाली ने तर्क दिया कि यह एक साधारण टाइपिंग त्रुटि थी और इससे शिकायत की मूल प्रकृति में कोई बदलाव नहीं होता।
प्रत्युत्तरदाताओं की ओर से अधिवक्ता श्री आभास क्षेत्रपाल ने कहा कि एक बार संज्ञान लेने के बाद शिकायत में संशोधन नहीं किया जा सकता। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि “देसी घी” को “दूध” से बदलना केवल शब्दों का बदलाव नहीं बल्कि शिकायत की मूल भावना में परिवर्तन है, और यह जीएसटी से बचाव का प्रयास है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मुद्दा अब नया नहीं है कि आपराधिक अदालत शिकायत में संशोधन की अनुमति दे सकती है या नहीं। कोर्ट ने एस. आर. सुकुमार बनाम एस. सुनीद रघुराम (2015) मामले का उल्लेख करते हुए कहा:
“यदि संशोधन किसी साधारण दोष से संबंधित है जिसे औपचारिक रूप से सुधारा जा सकता है और इससे दूसरे पक्ष को कोई पूर्वग्रह नहीं होता, तो भले ही संहिता में ऐसा संशोधन करने का स्पष्ट प्रावधान न हो, फिर भी अदालत ऐसे संशोधन की अनुमति दे सकती है।”
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि सुकुमार का मामला उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाम मोेदी डिस्टिलरी (1987) के निर्णय पर आधारित था, जिसमें मजिस्ट्रेट द्वारा प्रक्रिया जारी किए जाने के बाद भी आरोपी कंपनी के नाम में संशोधन की अनुमति दी गई थी। कोर्ट ने कहा कि:
“ऐसे तकनीकी दोष के आधार पर अभियोजन को विफल करना न्याय का उपहास होगा, जब वह दोष असुधारणीय न हो।”
कोर्ट ने आगे कहा कि यह मानना गलत है कि संज्ञान लेने के बाद कभी भी शिकायत में संशोधन नहीं किया जा सकता।
इसके अलावा, पीठ ने धारा 216 और 217 का उल्लेख किया, जो बताती हैं कि ट्रायल के किसी भी चरण में आरोप में परिवर्तन किया जा सकता है, यदि इससे आरोपी को कोई पूर्वग्रह नहीं होता।
निष्कर्ष
कोर्ट ने पाया कि:
- संशोधन ट्रायल की प्रारंभिक अवस्था में मांगा गया था।
- यह एक “curable irregularity” थी।
- इससे आरोपी को कोई पूर्वग्रह नहीं होगा, क्योंकि वास्तविक तथ्य ट्रायल में सामने आ सकते हैं।
- हाईकोर्ट ने जीएसटी की देयता जैसे मुद्दों पर अनावश्यक रूप से ध्यान केंद्रित किया, जो इस मामले का विषय नहीं था।
- संशोधन से शिकायत के स्वरूप या प्रकृति में कोई वास्तविक बदलाव नहीं हुआ।
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया और ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया, जिससे शिकायत में संशोधन की अनुमति दी गई थी। कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया कि मामले की सुनवाई शीघ्र पूरी करे और यदि कोई गवाह पहले से जिरह के लिए उपस्थित हुआ हो, तो पक्षकार उसे दोबारा बुलाने के लिए आवेदन कर सकते हैं।