भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक पूर्व न्यायिक अधिकारी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि जब किसी पक्ष को पहले से ही विवाहिता होने की जानकारी हो और इसके बावजूद सहमति से शारीरिक संबंध बनाए जाएं, तो इसे झूठे विवाह के वादे पर बलात्कार नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने आरोपी की आपराधिक अपील को स्वीकार करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट का 23 फरवरी 2024 का आदेश निरस्त कर दिया, जिसमें याचिकाकर्ता को आरोपमुक्त करने से इनकार कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता, एक सेवानिवृत्त सिविल जज (सीनियर डिवीजन), के खिलाफ एफआईआर संख्या 13/2015, दिनांक 14 दिसंबर 2015 को महिला थाना हल्दिया में भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 417 और 506 के अंतर्गत मामला दर्ज किया गया था। शिकायतकर्ता, जो उस समय तलाक की प्रक्रिया से गुजर रही थीं, ने आरोप लगाया कि उनकी मुलाकात अपीलकर्ता से हुई, जो उस समय हल्दिया में एसीजेएम के पद पर नियुक्त थे। उन्होंने विवाह का आश्वासन दिया और उनके व उनके बेटे की जिम्मेदारी लेने की बात कही। शिकायत के अनुसार, इसी आश्वासन के आधार पर उन्होंने उनके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किए।
शिकायतकर्ता ने कहा कि अपीलकर्ता ने उन्हें किराए का मकान दिलाया, उनके बेटे का स्कूल में दाखिला करवाया और दैनिक खर्च के लिए नियमित रूप से पैसे भेजे। लेकिन जब उनका तलाक हो गया, तो आरोपी ने उनसे दूरी बनाना शुरू कर दी, संवाद बंद कर दिया और अपने सुरक्षाकर्मी को निर्देश दिया कि वह शिकायतकर्ता से कोई संपर्क न रखे।
30 अप्रैल 2020 को आरोप पत्र दाखिल किया गया और 1 मई 2020 को मजिस्ट्रेट ने संज्ञान लिया। अपीलकर्ता द्वारा धारा 227 सीआरपीसी के तहत दायर आरोपमुक्ति आवेदन को 4 जनवरी 2024 को सत्र न्यायालय ने खारिज कर दिया। इस खारिजी को कलकत्ता हाईकोर्ट ने सीआरआर संख्या 639/2024 में सही ठहराया।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता और शिकायतकर्ता के बीच संबंध पूर्णतः सहमति से बना था और यह एक वर्ष से अधिक समय तक चला। उन्होंने कहा कि शिकायतकर्ता को पूरी जानकारी थी कि अपीलकर्ता अलग रह रहे थे लेकिन अभी तलाक नहीं हुआ था। यदि कोई विवाह का वादा किया भी गया हो, तो वह कानूनन बाध्यकारी नहीं था और इसके आधार पर धारा 376 के तहत बलात्कार का मामला नहीं बनता। इसके अतिरिक्त, कोई धोखाधड़ी या भयभीत करने वाली बात नहीं थी जिससे धारा 417 या 506 लागू की जा सके।
पश्चिम बंगाल राज्य की ओर से दायर हलफनामे में कहा गया कि अपीलकर्ता ने न्यायिक अधिकारी की हैसियत का दुरुपयोग कर शिकायतकर्ता का विश्वास जीता और झूठे विवाह के वादे के तहत उसका यौन शोषण किया। राज्य ने कहा कि सुरक्षाकर्मी और चालक के बयान एक पैटर्न को दर्शाते हैं और शिकायतकर्ता की बात का समर्थन करते हैं। इस आधार पर तर्क दिया गया कि प्रथम दृष्टया मामला बनता है और हाईकोर्ट ने सही किया जो आरोपी को आरोपमुक्त नहीं किया।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष
न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की पीठ ने कहा कि शिकायतकर्ता को अच्छी तरह ज्ञात था कि अपीलकर्ता विवाहित हैं, भले ही वे अलग रह रहे हों। कोर्ट ने कहा:
“यदि हम शिकायतकर्ता के कथन को यथावत मान भी लें और यह मान लें कि संबंध विवाह के प्रस्ताव पर आधारित थे, तब भी शिकायतकर्ता यह नहीं कह सकती कि यह किसी ‘तथ्य की गलतफहमी’ पर आधारित था या ‘झूठे विवाह के बहाने बलात्कार’ जैसा था।”
पीठ ने प्रमोद सुर्यभान पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य [(2019) 9 SCC 608] जैसे स्थापित कानूनों पर भरोसा करते हुए कहा कि विवाह का झूठा वादा यदि बुरी नीयत से किया गया हो और महिला के यौन संबंध बनाने के निर्णय से सीधा संबंध हो, तभी बलात्कार का मामला बनता है।
कोर्ट ने यह भी कहा:
“यह विश्वास करना कठिन है कि शिकायतकर्ता ने केवल विवाह के आश्वासन पर ही अपीलकर्ता के साथ शारीरिक संबंध बनाए।”
साथ ही, कोर्ट ने शिकायतकर्ता के बयानों में विरोधाभासों की ओर भी संकेत किया—विशेष रूप से अधिवक्ता गोपाल चंद्र दास की भूमिका को लेकर—जिससे शिकायत की संपूर्ण विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न होता है।
अंतिम निर्णय
कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह शारीरिक संबंध आपसी सहमति से बना था और शिकायतकर्ता के आरोप कानून के अनुसार अपराध की परिभाषा में नहीं आते। कोर्ट ने कहा:
“ऐसे मुकदमे न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग होते हैं, और ऐसे मामलों में आरोप तय करने के चरण पर ही कार्यवाही समाप्त करना उपयुक्त होता है।”
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक कार्यवाही को निरस्त कर दिया और हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया। अपील स्वीकृत कर ली गई और किसी भी पक्ष को कोई खर्च वहन नहीं करना होगा।