सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में यह सिद्धांत पुनः स्थापित किया कि आरोपियों के बीच सामान्य इरादा (Common Intention) तत्काल बन सकता है, यह आवश्यक नहीं कि उसका पूर्व नियोजन हो। कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि अन्य गवाहों की गवाही, विशेष रूप से घायल गवाहों की, विश्वसनीय और सटीक पाई जाती है, तो स्वतंत्र गवाहों की अनुपस्थिति से अभियोजन का मामला कमजोर नहीं होता है। यह फैसला जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ द्वारा 25 सितंबर 2024 को बलजिंदर सिंह @ लड्डू और अन्य बनाम पंजाब राज्य (क्रिमिनल अपील संख्या 1389/2012) में सुनाया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 12 दिसंबर 1997 को पंजाब के तरण तारण जिले में हुए एक हिंसक झगड़े से संबंधित है। घटनाओं की कड़ी एक मामूली विवाद से शुरू हुई, जब आरोपी बलजिंदर सिंह (ए-1) का स्कूटर पीड़ित पुराण सिंह (पी.डब्ल्यू.3) से टकरा गया। इस टकराव के बाद दोनों में गरमा-गरमी हुई और पी.डब्ल्यू.3 ने ए-1 को थप्पड़ मारा। विवाद खत्म होता दिखा, लेकिन 15 मिनट बाद, ए-1 अपने भाइयों (ए-2 और ए-3) और पिता (ए-4) के साथ हथियारों से लैस होकर वापस आया। उन्होंने पी.डब्ल्यू.3 और अन्य पीड़ितों, जिनमें जित सिंह (पी.डब्ल्यू.4) और जगजीत सिंह (पी.डब्ल्यू.5) शामिल थे, पर हमला किया। इस हमले में ए-4 ने अपनी 12-बोर डबल बैरल बंदूक से फायर किया, जिससे पीड़ितों को गंभीर चोटें आईं। पीड़ित लड्डी की अगले दिन और करम सिंह की 10 जनवरी 1998 को मृत्यु हो गई।
इस घटना के बाद आरोपियों पर हत्या, हत्या के प्रयास और दंगा करने का मुकदमा दर्ज हुआ। ट्रायल कोर्ट ने सभी आरोपियों को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 148, 302 और 307 के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने इस सजा को बरकरार रखा, जिसके बाद यह अपील सुप्रीम कोर्ट में की गई।
मुख्य कानूनी मुद्दे
अपीलकर्ताओं ने अपने बचाव में कई प्रमुख कानूनी मुद्दे उठाए:
1. धारा 34 के तहत सामान्य इरादा: अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि हाई कोर्ट ने धारा 34 (सामान्य इरादा) का गलत इस्तेमाल किया, क्योंकि हत्या के लिए पूर्व नियोजन या साझा इरादा साबित नहीं हो सका था। उन्होंने दावा किया कि यह घटना अचानक हुई थी और इसमें सामान्य इरादे के तत्व नहीं थे।
2. स्वतंत्र गवाहों का न होना: बचाव पक्ष ने इस बात पर जोर दिया कि घटना सार्वजनिक स्थान पर हुई थी, जहां कई दुकानें और मकान थे, फिर भी कोई स्वतंत्र गवाह पेश नहीं किया गया।
3. घायल गवाहों की विश्वसनीयता: अपीलकर्ताओं ने अभियोजन पक्ष के प्रमुख गवाहों (पी.डब्ल्यू.3, पी.डब्ल्यू.4, और पी.डब्ल्यू.5) की विश्वसनीयता को चुनौती दी, जो स्वयं पीड़ित थे। उन्होंने मामूली असंगतियों और चोटों के अभाव का हवाला देते हुए इन गवाहियों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां और निर्णय
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने दोनों पक्षों की विस्तृत दलीलें सुनने के बाद एक व्यापक फैसला सुनाया, जिसमें अपीलकर्ताओं द्वारा उठाए गए मुख्य कानूनी मुद्दों का समाधान किया गया।
1. सामान्य इरादा तात्कालिक रूप से बन सकता है: कोर्ट ने यह तर्क खारिज कर दिया कि सामान्य इरादे के लिए पूर्व नियोजन की आवश्यकता होती है। कोर्ट ने कहा, “सामान्य इरादा घटना से कुछ समय पहले ही बन सकता है।” कोर्ट ने इस मामले में पाया कि आरोपी हथियारों से लैस होकर वापस आए और समन्वित हमले की शुरुआत की, जो यह दर्शाता है कि सामान्य इरादा तत्काल बन गया था।
2. स्वतंत्र गवाहों का न होना: कोर्ट ने यह भी कहा कि स्वतंत्र गवाहों की अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले को स्वतः कमजोर नहीं करती है। कोर्ट ने कहा, “घायल गवाहों की विश्वसनीय गवाही को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि कोई स्वतंत्र गवाह पेश नहीं किया गया।” कोर्ट ने पाया कि पी.डब्ल्यू.3, पी.डब्ल्यू.4, और पी.डब्ल्यू.5 की गवाही विश्वसनीय थी और उसे मेडिकल सबूतों द्वारा पुष्ट किया गया था।
3. घायल गवाहों की विश्वसनीयता: सुप्रीम कोर्ट ने घायल गवाहों की विश्वसनीयता को बरकरार रखा और कहा कि मामूली असंगतियां गवाही की सच्चाई को कमजोर नहीं करतीं। कोर्ट ने कहा, “घायल गवाहों की गवाही सामान्यतः महत्वपूर्ण होती है, और जब तक इसमें गंभीर विरोधाभास न हो, इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता।”
कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियां
कोर्ट ने कई कानूनी मिसालों का हवाला देकर अपने निष्कर्षों को मजबूत किया, जिनमें शामिल हैं:
– “सामान्य इरादा घटना से ठीक पहले बन सकता है।”
– “विश्वसनीय घायल गवाहों की गवाही को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि स्वतंत्र गवाह पेश नहीं किया गया।”
इन टिप्पणियों ने आईपीसी की धारा 148, 302, और 307 के तहत अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपियों की आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा। कोर्ट के इस फैसले ने तात्कालिक सामान्य इरादे के सिद्धांत को और मजबूत किया और यह स्पष्ट किया कि स्वतंत्र गवाहों की अनुपस्थिति अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर नहीं करती, जब अन्य विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हों।