छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने ‘केशकाल जी.एन. इंडिया बॉक्साइट माइन्स एंड मिनरल लिमिटेड (JVC)’ द्वारा दायर रिट अपील को खारिज कर दिया है। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि सरकार द्वारा जारी कार्यकारी निर्देश वैधानिक प्रावधानों के पूरक (supplement) होने के लिए हैं और वे कानून को ओवरराइड नहीं कर सकते। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्त गुरु की खंडपीठ ने एकल पीठ के उस फैसले को बरकरार रखा जिसमें माइनिंग लीज प्रस्तावों को खारिज करने की चुनौती को ‘लोकस स्टैंडी’ (locus standi) की कमी और संशोधित खनिज कानूनों के तहत आवेदनों के लैप्स होने के आधार पर खारिज कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह कानूनी विवाद 1981 का है जब तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार ने बस्तर जिले के कुछ क्षेत्रों में बॉक्साइट खनन अधिकारों को ‘एम.पी. स्टेट माइनिंग कॉर्पोरेशन’ (MPSMC) के लिए आरक्षित किया था। 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद, ‘छत्तीसगढ़ मिनरल्स डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन’ (CMDC) को एक राज्य पीएसयू के रूप में स्थापित किया गया।
फरवरी 2003 में, CMDC और अपीलकर्ता के बीच कांकेर और बस्तर जिलों में बॉक्साइट दोहन के लिए एक संयुक्त उद्यम समझौता (JVA) हुआ। 2008 के एक पूरक समझौते में यह तय हुआ कि CMDC अपने नाम पर लीज के लिए आवेदन करेगा और बाद में अधिकार संयुक्त उद्यम को हस्तांतरित कर देगा। हालांकि, केंद्र सरकार को भेजे गए प्रस्तावों को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित क्षेत्र और स्वामित्व दिशा-निर्देशों के उल्लंघन जैसे विभिन्न आधारों पर बार-बार खारिज कर दिया गया।
अपीलकर्ता ने इन फैसलों को रिट याचिका (WPC No. 1142/2023) के माध्यम से चुनौती दी थी, जिसे एकल जज ने 16 अक्टूबर 2025 को खारिज कर दिया था। वर्तमान अपील इसी आदेश के विरुद्ध दायर की गई थी।
पक्षकारों के तर्क
अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री किशोर भादुड़ी ने तर्क दिया कि राज्य द्वारा अनुमोदित संयुक्त उद्यम में 74% इक्विटी धारक होने के नाते, वे प्रतिवादियों की निष्क्रियता से “व्यथित व्यक्ति” (person aggrieved) हैं। यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्ता ने राज्य के आश्वासनों के आधार पर ₹20 करोड़ से अधिक का निवेश किया था, जिस पर ‘प्रॉमिसरी एस्टॉपेल’ और ‘लेगिटिमेट एक्सपेक्टेशन’ के सिद्धांत लागू होते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि 2015 और 2021 के संशोधनों से पहले के आवेदन MMDR एक्ट की धारा 10A(2A) और 17A के तहत संरक्षित थे।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता के पास ‘लोकस स्टैंडी’ नहीं है क्योंकि माइनिंग लीज के आवेदन CMDC (प्रतिवादी संख्या 2) के नाम पर थे, न कि अपीलकर्ता के। उन्होंने यह भी कहा कि संशोधित MMDR एक्ट की धारा 10A(1) के तहत 12.01.2015 से लंबित आवेदन अपात्र हो गए हैं।
हाईकोर्ट का विश्लेषण
हाईकोर्ट ने मामले में मुख्य रूप से तीन बिंदुओं पर विचार किया: शेयरहोल्डिंग गाइडलाइन्स की पूर्वव्यापी प्रभावशीलता, संशोधित एक्ट के तहत आवेदनों की पात्रता, और अपीलकर्ता का लोकस स्टैंडी।
1. कार्यकारी निर्देश बनाम कानून: संयुक्त उद्यम भागीदारों के लिए शेयरहोल्डिंग अनुपात निर्धारित करने वाले 2009 के दिशा-निर्देशों के संबंध में, हाईकोर्ट ने कहा कि ये MMDR एक्ट की धारा 17A के प्रावधानों को लागू करने के लिए जारी किए गए थे। बेंच ने उल्लेख किया:
“कार्यकारी निर्देश वैधानिक प्रावधान को ओवरराइड नहीं कर सकते हैं लेकिन वे कानून के पूरक (supplement) होने या कानून के प्रावधानों को पूरा करने के लिए हैं।”
कोर्ट ने पाया कि JVA की क्लॉज 14 ने अपीलकर्ता को पूर्ण प्रबंधन नियंत्रण दिया था, जो धारा 17A(2) का उल्लंघन था क्योंकि इसमें सरकारी कंपनी का नियंत्रण होना अनिवार्य है।
2. आवेदनों का लैप्स होना: कोर्ट ने MMDR संशोधन अधिनियम 2015 और 2021 के प्रभाव की जांच की। यह नोट किया गया कि धारा 10A(2)(b) और इसके बाद के प्रावधानों का अर्थ है कि जो लंबित आवेदन एक निश्चित समय सीमा के भीतर अनुशंसित या संसाधित नहीं हुए, वे 9 जुलाई 2021 को लैप्स हो गए। कोर्ट ने कहा:
“प्रतिवादी नंबर 2 द्वारा प्रस्तुत आवेदन ऊपर विस्तृत सभी कारणों से अपात्र या लैप्स हो गए हैं क्योंकि राज्य सरकार द्वारा माइनिंग लीज देने के लिए केंद्र सरकार को कोई अनुशंसा नहीं की गई थी।”
3. लोकस स्टैंडी और “व्यथित व्यक्ति”: बेंच ने इस बात पर जोर दिया कि मुख्य आवेदक CMDC था, जिसने इन फैसलों को चुनौती नहीं दी थी। सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए, कोर्ट ने “व्यथित व्यक्ति” को परिभाषित किया।
“याचिकाकर्ता को किसी कानूनी अधिकार से वंचित नहीं किया गया है। याचिकाकर्ता के किसी कानूनी रूप से संरक्षित हित को कोई क्षति नहीं हुई है… इसलिए, वह ‘व्यथित व्यक्ति’ नहीं है और प्रतिवादी नंबर 2, जिसका हित प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है, उसने कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया है।”
हाईकोर्ट का निर्णय
खंडपीठ ने निष्कर्ष निकाला कि एकल जज के आदेश में कोई स्पष्ट अवैधता या अधिकार क्षेत्र की त्रुटि नहीं है। कोर्ट ने पुष्टि की कि अपीलकर्ता याचिका दायर करने का हकदार नहीं है क्योंकि उसके अधिकार सीधे तौर पर प्रभावित नहीं हुए हैं।
अपील खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने कहा:
“विद्वान एकल न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश उचित है और इसमें हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। तदनुसार, रिट अपील खारिज की जाती है।”
हालांकि, कोर्ट ने अपीलकर्ता को कानून के प्रावधानों के तहत उपलब्ध अन्य उपचारों का लाभ उठाने की स्वतंत्रता दी है।

