“डॉक्ट्रिन ऑफ प्लेज़र” की पुष्टि करते हुए छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि यदि कोई विधान राज्य सरकार को यह अधिकार देता है कि वह नामित नियुक्तियों को अपनी इच्छा से समाप्त कर नई नियुक्तियाँ कर सके, तो यह संविधान का उल्लंघन नहीं है।
यह निर्णय रिट अपील संख्या 211/2025 में आया, जिसे भानु प्रताप सिंह और दो अन्य व्यक्तियों ने छत्तीसगढ़ राज्य अनु. जनजाति आयोग से हटाए जाने के विरुद्ध दाखिल किया था। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति रविंद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने यह अपील खारिज करते हुए बिना नोटिस या सुनवाई के हटाए जाने के राज्य सरकार के निर्णय को सही ठहराया।
मामले की पृष्ठभूमि:
अपीलकर्ता—भानु प्रताप सिंह (अध्यक्ष), गणेश ध्रुव और अमृत लाल टोप्पो (सदस्य)—को 16 जुलाई 2021 को छत्तीसगढ़ राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग में 2020 के संशोधित अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत नियुक्त किया गया था।

परंतु 2023 विधानसभा चुनावों के बाद सरकार बदलने पर सामान्य प्रशासन विभाग ने 15 दिसंबर 2023 को आदेश जारी किया कि सभी राजनीतिक नियुक्तियों को समाप्त किया जाए (जहां कानूनी संरक्षण नहीं हो)। इसी निर्देश के तहत अपीलकर्ताओं की सेवाएं समाप्त कर दी गईं। उन्होंने इसके खिलाफ रिट याचिका संख्या 206/2024 दाखिल की, जिसे एकल पीठ ने 29 जनवरी 2025 को खारिज कर दिया। वर्तमान अपील उसी आदेश के विरुद्ध दाखिल की गई थी।
प्रमुख कानूनी प्रश्न:
- क्या 2020 अधिनियम के तहत की गई नियुक्तियाँ राज्य सरकार द्वारा इच्छा से हटाए जाने से संरक्षित हैं?
- क्या अपीलकर्ताओं को हटाए जाने से पूर्व धारा 4(3) के तहत सुनवाई का अधिकार मिलना चाहिए था?
- क्या “डॉक्ट्रिन ऑफ प्लेज़र” ऐसी वैधानिक नियुक्तियों पर लागू होता है?
अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि उनकी नियुक्तियाँ वैधानिक हैं और धारा 4(3) के तहत उन्हें हटाए जाने से पूर्व सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए था। उन्होंने कहा कि हटाने की कार्रवाई तात्कालिक, राजनीतिक रूप से प्रेरित और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध थी।
राज्य सरकार का पक्ष:
राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री रणबीर सिंह मरहास ने दलील दी कि नियुक्तियाँ स्पष्ट रूप से राज्य सरकार की इच्छा पर आधारित थीं, जैसा कि नियुक्ति आदेशों और अधिनियम की धारा 4(1) में उल्लेखित है। उन्होंने कहा कि जब बिना चयन प्रक्रिया के केवल नामांकन आधारित नियुक्तियाँ की जाती हैं, तो उन्हें राज्य सरकार अपनी इच्छा से कभी भी समाप्त कर सकती है।
कोर्ट की टिप्पणियाँ और निष्कर्ष:
खंडपीठ ने अपील खारिज करते हुए कहा:
“यदि कोई नियुक्ति नामांकन के आधार पर की गई हो, तो यदि विधान द्वारा राज्य सरकार को ऐसे नामांकनों को अपनी इच्छा से समाप्त कर नए लोगों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया हो, तो यह संविधान का कोई उल्लंघन नहीं है।”
कोर्ट ने आगे कहा:
“नियुक्ति आदेश में स्पष्ट है कि नियुक्ति राज्य सरकार की इच्छा पर आधारित है… यह कार्रवाई न तो संविधान के किसी अनुच्छेद का उल्लंघन है, न ही लोकनीति अथवा लोकतांत्रिक मानदंडों के विरुद्ध।”
कोर्ट ने B.P. Singhal v. Union of India (2010) के निर्णय का हवाला देते हुए कहा:
“ऐसे पदों पर नियुक्त व्यक्ति को बिना नोटिस, बिना कारण बताए और बिना किसी कारण की आवश्यकता के कभी भी हटाया जा सकता है।”
साथ ही, एकल पीठ के पिछले निर्णय की अनुच्छेद 8 और 9 में की गई कुछ टिप्पणियों को हटाते हुए कोर्ट ने कहा कि वे टिप्पणियाँ न तो आधिकारिक आदेश का हिस्सा थीं, न ही सुनवाई के दौरान उनका उल्लेख हुआ था।
निष्कर्ष:
- अपीलकर्ताओं की नियुक्तियाँ राजनीतिक नामांकन थीं, चयन प्रक्रिया आधारित नहीं थीं।
- उनका कार्यकाल स्पष्ट रूप से सरकार की इच्छा पर निर्भर था।
- हटाने की प्रक्रिया में कोई कलंक नहीं लगाया गया था, अतः प्राकृतिक न्याय या संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन नहीं हुआ।
- अपील खारिज कर दी गई।
कोर्ट ने कहा:
“नामित सदस्य को भी हटाया जा सकता है यदि प्रक्रिया अपनाई जाए, अन्यथा वह अपना कार्यकाल पूर्ण करेगा। निहित अधिकार का दावा करना हवा में महल बनाने जैसा है।”